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कि उनका कहीं नाम नहीं लिया गया - वे भी हमें तीखे वचनों की भेंट, घिराव कराने और 'परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा' जैसी धमकी - (जिससे हम किसी संभावित भावी दुर्घटना के प्रति चिन्तित हों) देने के बाद भी पुनः हमें धृष्ट वचन कहें ताकि हम किसी प्रभाव में आकर अपना न्यायसंगत मत बदल कर पूर्वाचार्यों को अपमानित करें और आगम-भाषा को भ्रष्ट मान लें । सो यह तो हमसे अन्तिम साँस तक न हो सकेगा । हम तो यह सन् 88 में ही लिख चुके हैं कि- "हमें अपनी कोई ज़िद नहीं, जैसा समझे लिख दिया- विचार देने का हमें अधिकार है और आगम रक्षा धर्म भी ।" हम फिर कह दें कि हम किसी व्यक्ति या संस्था के विरोधी नहीं, आगम-रक्षा के पक्षपाती हैं और यह हमारी श्रद्धा का विषय है और हमारे लिए सही है । हम कुन्दकुन्दाचार्य और जयसेन प्रभृति आचार्यों से अधिक ज्ञाता अन्य को नहीं मानते और न ही मानेंगे ।
शास्त्रीय निर्णय शास्त्रों से होते हैं । डराने, धमकाने, उत्तेजित होकर क्रोध करने अथवा अपमान जनक शब्दों के शस्त्रों से नहीं । जहां तक जिनवाणी की रक्षा का प्रश्न है, कोई भी श्रद्धालु अपना सिर तक कटा सकता है।
-- सम्पादक
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