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उसे पाद-टिप्पण के रूप में ही दर्शाया जाए ताकि आदर्श मौलिक कृति की गाथाएं यथावत ही बनी रहें और किसी महानुभाव को यह कहने का अवसर न मिले कि भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण कं २५०० वर्ष उपरान्त उत्पन्न जागरूकता के बाद भी मृल आगमों में संशोधन किया गया है।'
-सुदर्शन लाल जैन
मंत्री
उपसंहार
पं. बलभद्र जी ने संपादकीय में मेरा निवेदन शीर्षक से लिखा है कि उन्होंने आगम में एक भी शब्द न घटाया है न बढ़ाया है। आप और आचार्य परम्परा से आये अर्थ के अनुसार ही अन्वय और अर्थ किया है । हमारा अन्वय और अर्थ से प्रयोजन नहीं । इसलिए उनका यह उल्लेख हमारे लिए अप्रासंगिक है । वीर सवा मन्दिर का तो स्पष्ट मन्तव्य है कि पं० बलभद्र जी ने आगम के मूल शब्दों को निकाल कर व्याकरण के अनुसार शब्दों में एकरूपता लाने का प्रयत्न किया है जो हमें स्वीकार नहीं है । वे लिखते हैं कि उन्हें दस गाथाएं बतायें जो व्याकरण के नियमों के विरुद्ध हों । हमारा कहना है कि जैन शौरसैनी प्राकृत आम लोगों के बोलचाल की भाषा थी जिसका कोई व्याकरण नहीं होता । जिस भाषा पर व्याकरण लागू होता है उसे प्राकृत नहीं कहा जा सकता । प्राकृत भाषा में तो शब्दों के सभी रूपों का प्रयोग हुआ है । यदि वे व्याकरण के नियमों के अनुकूल होते तो सभी जगह शब्द एकरूप होते । खेद है कि पं. बलभद्र जी ने मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति की आड़ में व्याकरण के नियमों के अनुसार शब्दरूप परिवर्तन कर एकरूपता स्थापित कर दी है । इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि इस शुद्धीकरण में हैमचन्द आचार्य के व्याकरण के अनुसार