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ट -श्री भा० दि० जैन विद्वत्परिषद की ओर से दि० 23/6/88 ____ -'प्राचीन ग्रन्थों के संपादन की सर्वमान्य परिपाटी यह है कि उनके शब्दों में उलट फर न करके अन्य प्रतियों में जो दूसरे रूप मिलते हों. परिशिष्ट में या टिप्पणी में उनका उल्लेख कर दिया जाए ।' ठ -डा० विमलप्रकाश जैन, जबलपुर ____-'मंपादक को अपनी ओर से पाठ परिवर्तन करने का कदापि अधिकार नहीं है । जो भी कहना हो, वह अपना अभिमत या सुझाव पाद-टिप्पण में दे सकता है । और प्राकृत ग्रन्थों में तो विशेष रूप से किसी भी सिद्धान्त का मानकर पाठों को एक रूप बनाना तो सरासर प्राकृत की सुन्दरता, स्वाभाविकता को समाप्त कर देना है । जो संपादन कं सर्व मान्य सिद्धान्तों क सर्वथा विरुद्ध है ।' ड -अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्-खुरई अधिवेशन में दि० २७ ६. ९३ को पारित प्रस्ताव
'वर्तमान काल में मृल आगम ग्रन्था के सम्पादन एवं प्रकाशन के नाम पर ग्रन्थकारो की मल गाथाओं में परिवर्तन एवं संशोधन किया जा रहा है । जो आगम की प्रामाणिकता, मौलिकता एवं प्राचीनता का नष्ट करता है । विश्व-मान्य प्रकाशन मंहिता में व्याकरण या अन्य किसी आधार पर मात्रा. अक्षर आदि के परिवर्तन का भी मृल का घाती माना जाता है । इस प्रकार के प्रयामां से ग्रन्थकार द्वारा उपयाग की गई भाषा की प्रचीनता का लोप होकर भाषा क ऐतिहासिक चिन्ह लुप्त हान है । अतएव आगम/आर्य ग्रन्थो की मौलिकता बनाए रखने क उद्देश्य र अ भा दि जैन वि प विद्वानों, सम्पादकां. प्रकाशकों एवं उनके जात अज्ञात सहयोगियों में पाग्रह अनुरोध करती है कि वे आचार्यकृत मूलग्रन्थों में भाषा एवं अर्थ सुधार के नाम पर किसी भी प्रकार का फेरबदल न करें । यदि कोई संशोधन/परिवर्तन आवश्यक समझा जाए तो
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