Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 154
________________ हों ओर उन्हें वर्तमान सम्मानित विद्वानों के समर्थन का भरोसा भी हो । पर आधुनिक किसी भी विद्वान् को जयसेनाचार्य से अधिक ज्ञाता नहीं माना जा सकता जिन्हें इन्होंने अमान्य कर दिया । फिर मैं तो विद्वानों की चरणरज तुल्य भी नहीं. जो उक्त संशोधनों का समर्थन कर सकूँ । पश्चाद्वर्ती व्याकरण से तो शुद्धिकरण सर्वथा ही असंगत है । फलतः - आगमरक्षा के लिए हम सद्भाव में अपनी बात लिखते रहे और सम्पादक मौन अपना काम निबटाते रहे । सन् 8) से चले हमारे लेखों के 12 साल बाद ।। - 2. () 3 को अचानक उक्त संपादक जी एक यार्थी के साथ मेरे पास आए और बोले - हम समयमार का नया पस्करण छपा रहे हैं । पहिले संस्करण का आपने भारी विरोध किया था । अब आप मशाधन द दीजिए. हम विचार लेंगे । मैंने कहा - आगम में संशोधन देने की मुझ में क्षमता नहीं और न ऐसा दु:साहस ही । मैं मरी भावना का अनकान्त के ग्यस्करणों में द चुका हूँ। मैं परम्परित मूल म हस्तक्षेप का पक्षधर नहो । उसपर संपादक जी ने मुझसे संबंधित अनेकान्त माग और मैंने दे दिए । साथ में पत्रक भी दे दिया, वे चले गए । उसके बाद क्या हुआ इसकी लम्बी कहानी है । मग व वीर संवा मन्दिर का जैसा सार्वजनिक अपमान किया कराया गया वह आगत पत्रों व टेप में बन्द है । इस बीच हम पर लोगां के दबाव भी पड़े कि हम चुप रहें । लोगों ने हमें यहां तक भी कहा कि वे स्वयं हमसे सहमत हैं और उन्हें भी दुख है । पर, अकेला चना भाड़ का नहीं फोड़ सकता' और 'सर्वेगुणाः कांचनमा श्रयन्ते' कहावत भी है अत: चुप रहना ही ठीक है, आदि । लेकिन हम यह सोचकर कि 'धर्म रक्षकों पर सदा ही संकट आते रहे हैं' - हम भाँति- भाँति के भय दिखाने पर भी .. घिराव व त्यागपत्र की चेतावनी सुनकर भी भयभीत नहीं हुए और आगम-रक्षा

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