Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 153
________________ अवश्य भयानक परिणाम संभव था । पर, अहिंसा प्रधान धर्मियों के लिए वह काम 'क्षमा वीरस्य भूपणम्' में खो गया और इनका काम प्रवचन परमेष्ठी की आड़ लेकर चलता रहा । पू. आचार्य श्री के मान्निध्य में कवच में सुरक्षित ये निश्चिन्त और सब लोग भयाक्रान्त और मौन जैसे थे कौन बोलता या हिम्मत करता । पर, इस दर्द में इधर चुप न बैठा गया और हमने सन् 198) के अनेकान्त में इसका प्रतिवाद पहिली बार किया । जब लम्बे अर्से के बाद भी सुनवाई नहीं हुई तब उसी बात को दुहराने के लिए सन् 82 में उसे 'जिनशासन के विचारणीय प्रसंग' पुस्तक में छपाया जिसे पं कैलाशचन्द्र शास्त्री ने समर्थन दिया । फिर जब सन् 57 में इनके द्वारा ऐसा ही संशोधित ( ? ) 'नियममार' आया तब वीर सेवा मन्दिर की प्रबुद्ध कार्यकारिणी ने यह सोचकर कि 'कही जिनवाणी' के परम्परित प्राचीन मूल रूप का लोप ही न हो जाय' इस रूप-बदलाव का अनेकान्त द्वारा विरोध का प्रस्ताव किया । फलतः - सन् १६ ई. मे लेख पुन: चालू हुए और कार्यकारिणी के निर्णयानुसार त्यागियों व विद्वानों की मम्मतियाँ मँगा कर एक पत्रक भी छपाया गया । फिर भी कोई फल न हुआ । हालांकि ये इस विरोध में खबरदार थे . बारामती आदि में ये इस प्रयत्न में भी रहे कि कछ विद्वानों से ये अपने बदलाव पक्ष को पुष्ट करा सकं । पर-- - -- ? निश्चय ही आचार्य जयसेन, जिन्होंने कंदकंद के ग्रन्थों की व्याख्या प्राकृत शब्द रूपों का उधृत करते हए की है, वे अपने पश्चाद्वर्ती विद्वानों में प्रकृष्टतम हैं और समय में भी हमारी अपेक्षा कुंदकुंद के अधिक निकट है । समयसार की विभिन्न गाथाओं में उनके द्वारा उद्धृत विभिन्न गाथाओं के विभिन्न शब्द रूपों को संपादक महोदय ने बदल कर प्राकृत को एकरूपता दे दी । शायद संपादक विशेष प्राकृतज्ञ 40

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