Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 124
________________ बाकी है । संस्कृत छाया से प्राकृत पढ़ने वाले विद्वानों के द्वारा इस प्राकृत भाषा के साथ छेड़छाड करना अनधिकार चेष्टा कही जायेगी। उसे रोका जाना चाहिए। आचारांग की भाषा के निर्धारण के लिए विद्वान प्रयत्नशील हैं । वे प्राचीन शिलालेखों, पालिग्रन्थों, ध्वनि परिवर्तनों के क्रमिक विकास, व्याख्या साहित्य में सुरक्षित रूपों, संघ की परम्परा और विषय के अर्थ की सुरक्षा आदि को ध्यान में रखकर कुछ निष्कर्ष निकालने के लिए प्रयत्नशील हैं । इस कार्य में वर्षों का श्रम अपेक्षित है । इतना ही श्रम जब बुद्धिपूर्वक कोई श्रमण-परम्परा का जानकार विद्वान् जैनशौरसेनी आगमों की भाषा के क्षेत्र में करे तभी किसी शब्द के बदलने का सुझाव वह दे सकता है, शब्द (मूल) को वह फिर भी नहीं बदल सकता । क्योंकि प्राचीन ग्रन्थों का एक-एक शब्द अपने समय का इतिहास स्तम्भ होता है। शब्द के साथ-साथ आगमों के अर्थ की सुरक्षा भी आवश्यक है । श्रमण-परम्परा में अर्थ की प्रधानता रही है, इसीलिए एक अर्थ को व्यक्त करने के लिए कई शब्द/शब्दरूप प्रयोग में आये । उन सब शब्दरूपों, विकल्पों का संरक्षण करना भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखना है । श्रमण-परम्परा को जीवित रखना है । शब्द परिवर्तन या संशोधन का सबसे बड़ा आधार ग्रन्थ विशेष की उपलब्ध प्राचीन पाण्डुलिपियों का अध्ययन हो सकता है । पाण्डुलिपियों का अध्ययन सम्पादन की एक विशेष कला है केवल पाठान्तर दे देना या शब्दों को एकत्र कर देना सम्पादन नहीं है । इस कार्य की गम्भीरता के कारण ही पहले और अब भी विद्वानां के ग्रुप द्वारा सम्पादन करने की पद्धति है । अकेले तो केवल अपने विचार व्यक्त किये जा सकते हैं या टिप्पणी दी जा सकती है, मूलपाठ में शब्द नहीं बदला जा सकता है। किन्तु

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