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डॉ. नन्दलाल जैन व डॉ. प्रेम सुमन
डॉ. नन्दलाल और डॉ प्रेम सुमन पर आरोपों के प्रसंग में डॉ. प्रेम सुमन के पत्र दिनांक 3 अप्रैल 1988 को यहां उद्धृत कर रहे हैं जिससे आपको उनके विचारों का पता लग जाये ।
डा. प्रेम सुमन का पत्र आदरणीय पं० जी,
29, सुन्दर वास उदयपुर 3-4-88 सादर प्रणाम
आपके पत्र मिले एवं आपका लेख भी । "आगम के मूलरूपों में फेर-बदल घातक है" नामक आपका लेख सार्थक एवं आगम की सुरक्षा के लिए कवच है।
जिन्होंने प्राचीन आगमों व अन्य सहित्य का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि कोई भी प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ/आगम, किसी व्याकरण के नियमों से बंधी भाषा मात्र को अनुगमन नहीं करता । उसमें तत्कालीन विभिन्न भाषाओं, बोलियों के प्रयोग सुरक्षित मिलते हैं । अत: ग्रन्थ की प्रमुख भाषा कोई एक प्राकृत हो सकती है, किन्तु अन्य प्राकृतों के प्रयोग उस ग्रन्थ के दूषण नहीं होते ।
यह ठीक है कि ध्वनि परिवर्तन या भाषा विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार प्राकृत के प्रयोगों में क्रमश: परिवर्तन की प्रवृति बढ़ी है। किन्तु कौन सी प्रवृति कब प्रारम्भ हुई उसकी कोई निश्चित कालरेखा खींचना विशेष अध्ययन से ही सम्मभव है । एक ही ग्रन्थ में कई प्रयोग प्राकृत बहुलता को दर्शाते हैं । अतः उनको बदलकर एक रूप कर देना सर्वथा ठीक नहीं है।
जैनशौरनसेनी भाषा का प्रयोगों की दृष्टि से अध्ययन होना अभी