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स्मृत रूप से जब शास्त्ररूप में आया तो १८ भाषाओं के आचार्यों की दृष्टि श्रोता-हित पर थी, 'वत्त्थुसहाव' को 'विद्वज्जनसंवेद्य' रख कर प्राकृत जन को वंचित करने की नहीं थी । 'स्याद्वाद' भाषाचौकापंथी (conservatism) का भी निराकरक है । वह भाषास्याद्वाद है । कहके नमोऽस्तु की ।
आचार्य श्री विद्यानन्द जी की चेतावनी - एक प्रतिक्रिया
प्रो० गोरावाला से दिनांक १ मई को हुई उपरोक्त भेटवार्ता के पहले महावीर जयन्ती की आम सभा में परेड ग्राउन्ड, लाल किला, दिल्ली में दिनांक ३ अप्रैल, १९९३, को मुनि श्री चेतावनी दे चुके थे -
"अन्त में मैं आपको एक महत्वपूर्ण बात बता दूं कि हमारे पं. बलभद्र जी ने एक समयसार सम्पादन १९७८ में कर दिया था जिसका सम्पादन ताडपत्री ग्रंथ के और चार हस्तलिखित और चार जो छपे हुए ग्रंथ हैं उनके अनुसार किया गया ।
१९७८ में लगातार एक साल तक वीर सेवा मन्दिर के कई सदस्यों ने पं० पद्मचन्द जी से ये लिखवा दिया कि ये ग्रन्थ भ्रष्ट कर दिया, ये ग्रन्थ बदल दिया और इसकी भाषा बदल दी । आगम को ध्वंस कर दिया, ऐसे सब बहुत बड़े आपत्तिजनक बातें कही, इतना ही नहीं उन्होंने कार्यकारिणी समिति बुलाकर एक पोस्टर भी निकाल कर इस ग्रंथ का बहिष्कार कर दिया । उनसे अनेक बार पंडित जी ने चिट्ठियां लिखी
और अभी भी तैयार हैं । समाज में पडितों को लड़ना नहीं चाहिए । पंडित तो पहले जैसे नहीं हैं और लड़वाने वाले सबसे बड़े जो चतुर लोग हैं उनसे आप लोगों को बच कर रहना चाहिए । और साफ हम कहते हैं कि आपको कोई हिम्मत हो तो यहाँ आप बाल आश्रम में आओ या यहाँ आओ या जहां आप चाहते हैं । पंडित जी एक-एक प्रामाण देंगे, हम भी बैठने को तैयार हैं । उनके पास ग्रन्थ भी भेजा
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