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नहीं दिया बल्कि प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया ही दी है और अर्थ संस्कृत छाया का किया है । इसलिए उन्होंने प्राकृत को महत्व देने पर जोर दिया । हमारी दृष्टि में आचार्य श्री का आशय प्राकृत के मूल शब्दों को व्याकरण के अनुसार एकरूपता प्रदान कर बदलना नहीं था । वेदों के समान ही मूल प्राचीन आगम प्राकृत ग्रन्थ व्याकरण के नियमों से बंधे नहीं हैं । प्राकृत ग्रन्थों में विभिन्न भाषाओं और बोलियों के शब्द प्रयोग में लाये गये हैं, जो अपने आप में इतिहास है । मूल शब्दों में तो परिवर्तन किया ही नहीं जा सकता । इसके अतिरिक्त यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि कुन्दकुन्द से पहले कोई प्राकृत का व्याकरण था ही नहीं । हैमचन्द आचार्य की व्याकरण के आधार पर मूल शब्दों में परिवर्तन करने से मूल आगम की प्राचीनता तो नष्ट होती ही है, साथ ही पण्डित बलभद्र जी के इस कृत्य से आचार्य कुन्दकुन्द बारहवीं शताब्दी के प्रमाणित होते हैं । इस तरह आगम के बदलाव करने से उस वर्ग विशेष की मान्यताओं को बल मिलता है जिससे दिगम्बर जैन आगम ईस्वी पूर्व न होकर बारहवीं शताब्दी का हो जाता है । वह वर्ग यही चाहता है । पण्डित बलभद्र जी ने अपने तर्क को सिद्ध करने के लिए अपने पत्र 15-2-93 में श्वेताम्बर विद्वान् का हवाला दिया है । कहीं पण्डित बलभद्र जी श्वेताम्बरों के प्रभाववश तो कार्य नहीं कर रहे हैं?
स्व-प्रशंसा
पण्डित बलभद्र जी ने स्व-प्रशंसा और सार्वजनिक अभिनन्दन की चर्चा करते हुए लिखा है कि कानजी स्वामी पक्ष के विद्वानों ने उनके समयसार की प्रशंसा की और उन्हें आश्वासन दिया कि भविष्य में जब भी वे समयसार प्रकाशित करेंगें पण्डित बलभद्र जी के समयसार की