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अनेकान्त
होगा। जैनी बिचारें कि यह मब क्या हो रहा है और जरूरत है। पर, हमाग लम्बा अनभव है कि-अज्ञ कौन-सा वर्ग ऐसे मार्ग प्रशस्त कर रहा है। हमे तो अपनी भेड़ चाल न छोइ सकेगे और दोनो हाथो लड्ड आश्चर्य है कि भगवान भक्त कही जाने वाली पद्मावती लेने के धुनी कुछ जायक अपनी गंगा-जमुनी (दुरगी) कसे भगवान के समक्ष बैठकर अपनी पूजा करा भगवान प्रकृतिवश सुधार की ओर न बढ़ सकेगे-पैसे के धूनी का तिरस्कार करवा रही है। क्या वह भक्तों को स्वप्न कुछ ज्ञानी भी शायद इसी श्रेणी मे रहें। सम्भव है में ऐसी ताड़ना नहीं दे सकती कि तुम मेरी पजा कर हमारी सष्टवादिता की परिधि मे आने वाले 'दाढ़ी में मेरे समक्ष भगवान की ऐसी अवहेलना करोगे तो तुम्हारा तिनका' जैग लोगो को हमारी कयनी आतकवादी भाषा भला न होगा-तुम वीतरागी मार्ग मे च्युन हो जाओगे। भी लगे या वे हमे अपमानित भी करें। पर, फिर भी
हम लिखने को मजबूर हैं । यन. हमारे मामने लिखा है-- यह तो हमने चन्द विकृतियो को प्रलक मात्र दी है,
'न्य' स्यात् पथ, प्रविचलन्ति पद न धीग:' और उससे ऐसी ज्ञात-अज्ञात ढेर सारी विकृतियो का पुलन्दा भी हमारा ध्यान क्षण भर भी नहीं हटना। धन्यवाद सहज ही बाँधा जा सकता है जिसमे सुधार करने की
-सम्पादक (पृ०२६ का षाश) परीषहजय-'क्षधादि वेदनानां तीवोदयेऽपि.."समतारूप उत्पन्न नित्यानन्दमयस्खामन से चलायमान न होना पीबह
परमसामायिकेन । निजारमात्मात्मा भावना जय है। स्वरूप में पाचरण चारित्र है अर्थात अर्थात् संजान निविकार नित्यानन्दलक्षणमुखामृत स्वात्मपत्ति चारित्र है। इच्छा का निरोध नप है। संवित्तरचलन स परीषह जय ।' -प्र० सं० टी० ३५
उक्त सभी उद्धरणो मे (जो सबर-निर्जरा के साधन
भूत हैं) परिग्रह की निवत्ति और म्व-प्रवृत्ति ही मुख्यत: चारित्र'स्वरूपे चरण चारित्रम् । बसमग्र प्रवृत्तिरित्यर्थः।'
-प्र० सा०व०७
परिलक्षित होती है और उक्त व्यवस्थाओ मे प्रयत्नशील तप-'इच्छानिरोधस्तप ।'
..त मूल
किन्ही व्यक्तियो को पदाचित् हम किन्ही अपेक्षाओ से मन की रागादिक से निति होना मनोगुप्ति है। देशोजन या जैन कह सकते है। पर, आन तो जैनाचार
से सर्वथा अछता व्यक्ति भी किसी समुदाय विशेष मे उत्पन्न झंठ आदि मे नित्ति या मौन वचनगुप्ति है। काय की। क्रिया से निवृत्ति-कायोत्सर्ग काय गुरित है। निज पर. हाने मात्र में ही अपने को जैन घोषित करने वाद
बनाए बैठा है और विडम्बन्ग यह कि इस प्रकार 'जन' मात्मतत्व में तीन सहज परम ज्ञानादि परमधर्मों का समूह
को मम्प्रदा बनाकर भी कुछ लोग इसे बड़े गर्व से धर्म समिति है। स्व-स्वरूप मे ठीक प्रकार से गत -प्राप्त
का नाम दे रहे है-कह है है 'जैन मम्प्रदाय नहीं, अपितु समित कहलाता है। मनन ज्ञानादि स्वभावी निज आत्मा
धर्म है। और वे स्वय भी जैनी है। जब कि इस धर्म के में, रागादि विभावों के त्यागपूर्वक, लीन होना, तन्मय
नियमो के पालन मे उन्हे कोई मरोकार नहीं। यह नो होना परिणत होना समिति है। अपना शुद्ध आत्म-भाव
ऐमा ही स्व-बचन बाधित वचन है जैसे कोई पुरुष बांझ धर्म है उसमे रहो। जो पाणी को मिथ्यात्र गगादिरूप
स्त्री ना लक्षण करते हा कहे गि-जिसक समान न हो संसार से उठाकर निर्विकार शुद्ध चैतन्य मे धरे वह धर्म
उमे बौन कहते हैं जैसे--- 'मेरी माँ।'- भला बांझ है तो है, रत्नत्रय धर्म है। नारित्र निश्च मे धर्म है सपना को
मा कैमे और वह उम का पुत्र कसे? इपी प्रकार यदि वह धर्म कहा है। मोह-क्षोभ से रहित निज अात्मा ही समय सम्प्रदायी है तो जन कम है-आत्मा है, समताभाव है, धर्म है । कम की निर्जरा के
हमारा कहना तो यही है कि यदि किसी को सच्चा लिए अस्थि-मज्जागत अर्थात् पूर्णरूप से हृदयगम हुए श्रुत- जैन बनना है तो पा ले वह भाव और द्रव्य दोनो प्रकार शान के परिशीलन करने का नाम अनुप्रेक्षण है - शरीर के परिग्रहो में सकोच करे। इनमें सकोच होते ही उसमे भोगादि की अस्थिरता आदि का चितन अनुप्रक्षा है। अहिमादि सब व्रतो का सचार होगा-क्योकि सभी पापो मधादि वेदनाओ के तीव्रोदय होने पर भी-समतारूप की जननी परिग्रह है और 'जैन-सस्कृति' का मूल अपरिपरमसामायिक से..... निज परम पास्म की भावना से ग्रह है।