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हो सकते हैं, पहला तो यह कि असत्य कथन को बार बार दोहराने से उन्हें वह सत्य प्रतीत होने लगा हो या फिर यह कि उनकी पत्रकारिता की कला का एक पहलू हो कि इसे पढ़कर समाज के कुछ लोग तो उनके असत्य को सत्य मान ही लेंगे । हर व्यक्ति तो वीर सेवा मन्दिर से स्पष्टीकरण नहीं मांगेगा ।
हमारी कार्यप्रणाली
किसी व्यक्ति विशेष के चरित्र हनन में हम विश्वास नहीं रखते, किंतु मिथ्या एवं भ्रामक धारणाओं का निराकरण करना हमारा कर्तव्य है । वीर सेवा मन्दिर एक प्राचीन संस्था है । इसका अपना गौरवपूर्ण इतिहास है । इसके अपने विशेष उददेश्य और कार्यक्रम हैं । यह संस्था आगम की रक्षार्थ सदैव तत्पर रही है और आगे भी रहेगी । इस संस्था को अपनी कार्यप्रणाली के लिए पण्डित बलभद्र जी के अवांछित परामर्श अथवा प्रमाण पत्र की आवश्यकता कदापि नहीं है ।
विरोधाभासी वक्तव्य
प्राकृतविद्या के पृष्ठ 8 पर पण्डित बलभद्र जी ने लिखा है कि हमने एक भी शब्द अपनी मर्जी से घटाया बढ़ाया नहीं है और मूडबिद्री की ताडपत्री को हमने आदर्श प्रति माना है । पृष्ठ 4 पर वे लिखते हैं कि कई शब्द छूट गये 'अत: व्याकरण और छन्द शास्त्र की दृष्टि से उन्हें शुद्ध किया।
इनका यह कथन कितना विरोधाभासी है कि एक ओर तो कहते हैं कि “घटाया बढ़ाया नहीं और दूसरी तरफ कहते हैं कि व्याकरण
और छन्दशास्त्र की दृष्टि से शुद्ध किया" । वीर सेवा मन्दिर ने अपने 13 मार्च 1993 के पत्र में पण्डित बलभद्र जी की मांग से सहमत होते