Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 101
________________ १२६, वर्ष ४६, कि०३ अनेकान्त of Asoka, Buddhism was followed only by an है। गलत रूपांतर को यह स्थिति वैसी ही है जसो कि obscure Minority in India like many other "सातकरिण" (आध्र प्रदेश का एक शासक) का अनवाद contemporary creeds .....Buddhism even in सात कानोवाला राजा अनुवाद कर देने से विद्वानों के the days of Asoka was not a state religion." सम्नुख उपस्थित हुई थी। विद्वानो को इस पर विचार करना चाहिए। जो भी हो, इस पिलालेख से यह आशय अशोक के शिलालेख १२ (गिरनार' को लेकर यह लेना चाहिए कि केरल मौर्य साम्राज्य के नीचे के भाग में कह दिया गया कि उसके ममय तक केरल मौर्य साम्रा स्थित था न कि स्वतत्र राज्य था। ज्य के अन्तर्गत नही आया था क्योंकि वह उसका उल्लेख पड़ोसी राज्य के रूप में करता है। ऐसा कथन करने वाले इधर कुछ शिलालेख ऐसे भी पाए गये हैं जिनके विद्वान जरा उसका शिलालेख १३ देखे । उसमे उसने आधार पर यह कहा जाता है कि अशोक बौद्ध था। "निच" (नीचे) शब्द का प्रयोग किया है जिसका आशय उसका एक आज्ञालेख ऐसा भी है जिसमे सात बौद्ध प्रथो के नाम हैं। शिलालेख मे प्रथो के नाम सचमुच ही यह है कि चोड, पंड, तबपनिय आदि उसके राज्य के आश्चर्य की बात है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस प्रकार निचले भाग मे हैं। जो राज्य सचमुच स्वतंत्र थे, उनके लिए उसने "राजा" (आंतियको योनराज!) शब्द का के लेख जानी हों। पुरातत्वविद इस बात को जानते हैं कि जाली लेख या ताम्रपत्र भी पाए गये हैं। मास्को प्रयोग किया है। यदि निच पर ध्यान न दें तो भोज, अंध, पूलिंद, पितनिक आदि मारे ही राज्य जिनका उल्लेख (कर्नाटक) शिलालेख की प्रथम पक्नि मे अशोक का नाम शिलालेख १३ मे है, पहोमी राज्य हो जायेंगे। इसी है किन्तु इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए प्रकार केरलपुत्र की भी स्थिति समझनी चाहिए। वैसे कि इस लेख की पहली पक्ति मे असोकस्सोड देने मे मूल शिलालेख मे "सतियपूतो केतलपुतो" का प्रयोग हा कोई कठिनाई नहीं हुई होगी। कर्नाटक में बौद्ध धर्म है सतियपूतो से क्या आशय है इसका ठीक-ठीक निर्णय और जैनधर्म के इतिहास को जानने वाले इस बात से नहीं हो सका है। केतलपुतो का रूपांतर झट से केरलपुत्र परिचित हैं कि इन दोनो धर्मों में एक युग में तीव्र सघर्ष कर लिया गया है। लेख प्राकृत मे है और प्राकृत के हआ था। पूजनीय माने जाने वाले जन तकशास्त्री अकनियमो के अनुसार "संस्कृत का र वणं प्राकृत मे ड, ण लकदेव और वौद्ध आचार्य मे दीर्घ समय तक शास्त्रार्थ और र मे बदल जाता है।" (नमिचन्द्र शास्त्री, अभिनव चला था तथा बोट आचार्य उनके प्राणो के प्यासे हो गये प्राकृत व्याकरण, पृ० १२.)। अत यहाँ इन तीनो वर्णों थे। आश्चर्य नही कि अशोक का नाम बाद मे जोड दिया मे से कोई होना चाहिए था। अगर इसे अपवाद मान गया हो। बिहार की बराबर पहाडियो के शिलालेखो में लें तो भी केरलपत्र नाम का कोई शासक हुआ है या से "आजीविक" शब्द छेनी से काट देने का प्रयत्न किया किसी समय केरल का नाम केरलपुत्र रहा है यह बात गया है। शिलालेखो को घिस देने या उनके कुछ भागों गले नही उतरती है। कही ऐसा तो नही कि केरलपति को नष्ट कर देने के प्रयत्लो का आभास अनेक स्थानो पर को केरलपत्र पढ़ लिया गया है । एक बात और भी ध्यान होता है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में एक नो देने की है वह यह कि सस्कृत 'च' के स्थान पर प्राकृत फट ऊंचा शिवलिंग है जिसकी पूजा होती है। यह अशोक सानो जाता है। इस दष्टि से केतलपुतो का सस्कृत के एक शिलालेख को काटकर बनाया गया बताया जाता रूप चेरलए होना चाहिए । किन्तु हमे केरलपुत्र स्वीकार्य है। धार्मिक असहिष्णुता के युग मे सब कुछ सम्भव हुआ नही है। इसलिए यदि प्राकृत का सही पाठ चेरलाति गा माना जाए तो सारी आपत्तिया दूर हो जाती हैं। चेरल (क्रमशः) या चेरलपित का प्रयोग तर्क और व्यवहारसगत लगता

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