Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 103
________________ २८, बर्ष ४६, कि०३ अनेकान्त अपरिग्रह के परक ही है । कहा भी है है। यानी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों में 'क्षमा मार्दव आर्जव भाव है, सत्य, शोच, सयम, तप, दान्त की लोभ कषाय पूर्व की कषायों मे कारण है। लोभ त्याग'उपाय' है। आचिन ब्रह्मयं धर्म दश सार हैं...।' (चाहे वह किसी लक्ष्य मे हो के होने पर ही क्रोध, मान जब सत्य, शौच, संयम, तप और त्यागरूपी उपायो या मायाचार की प्रवृत्ति होगी। इसी प्रकार हिंगा, झठ, से मन को क्षमा, मार्दव, आर्जव रूप भावो मे ढाला जाता पोरी, शील, परिग्रह इन पाच पापो में भी अन का है तब आकिंचय (पूर्ण अपरिग्रह) धर्म प्राप्त होता है परिग्रह पाप पूर्व के पापों मे मूल कारण है। परिग्रह और तभी आत्मा-- ब्रह्म (आत्म') में सीन (नागप) होता (चाहे वह किसी प्रकार का हो) के होने पर ही हिंसा, झूठ, है। यह आत्मा में लीनता (नदूपता) का होना ही 'जिन' चोरी या कुशीन की प्रवृत्ति होगी। ये तो ह। पहिले भी या जैन' का रूप है। और इस प्राप्त करने के लिए निख चुके कि-'तन्मूला वंदोपानुषङ्गा'ममेदमिति, आस्रव से निर्वत्ति पाकर संवर-निर्जरा के उपाय करन हि सति सकल्प रक्षणादय सजायन्ते । तत्र च हिंसाऽवश्य पडते है और वे सभी उपाय प्रवृत्त रूप न होकर निवृत्ति भाविनी तदर्थमनत जल्पति, चौयं चाचरति, मैथुन च रूप (जमा किन म हाना है। ही होते है। किन्ही का प्रतिपनने ।'--त० रा ० ०० ७.१७४५ सर्व दोष अशो मे हम नाशिक नित्ति कर, वालो को भी 'जिन' । परिग्रह मलक है। यह मेरा है, ऐसे सकल्प मे रक्षण आदि या 'जन' कह सकत है। कहा भी है होते है उनमे हिंसा अवश्य होती है, उसी के लिए प्राणी जिणा दुविधा मलदांजणभएण' विय धाइक.म्मा झठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुनकर्म मे प्रवृत्त सय नजिणा। के त? अरहन मिद्धा अवरे आ.रिय उव. होता है, आदि। ज्झाय साह देय-जिणा तिव्व कगायेदियमोहनियादी।- आचायाँ ने मूर्छा को पार ग्रह कहा है। और यहा धवला-६,४, १, १, १० । मर्छा से तात्पर्य १४ प्रकार के परिग्रह से है। मूर्छा जिन दो प्रकार के है-सका जन और देशाजन। ममत्व भाव को कहते है। और ममत्व सब परिग्रहो मे घानिया कर्मों का क्षप करन व.ल अरहतो और सर्व:म- म है । अरति, शोक, भयादि भी इसी से होते है । इमी रहित सिद्धो को सकलाजन कहा जाता है तथा कषाय लिए ममत्व का परिहार करना चाहिए। राग की मुख्यता माह और इन्द्रियो की तो बता पर विजय पाने वाले के कारण ही जिन भगवान को भी बोत द्वेष न कह कर आचार्य, उपाध्याय और साधु को देश-जिन कहा जाता वीतरागी कहा गया है । यदि प्राणी का राग बीत जायहै। उक्त गुणो की तर-तमना म कचित देश-त्यागी- मळ भात बोत जाय तो वह 'जिन' हो जाय । जिनपरिग्रह को श करन वाले श्रावको का भी भावी नय से मार्ग में परिग्रह को सर्व पापो का मूल बताया गया है जैन मान सकते है, क्योकि---मोक्षरूप उत्तम सुख मिलना और परिग्रह त्यागी को ही 'जिन' और 'जैन' का दर्जा परिग्रह कृश करने पर ही निर्भर है, फिर चाहे वह- दिया गया है। परिग्रह अन्तरग हो या बहिरंग या हिंसादि पापो रूप कुछ लोग रागादि को हिंसा और रागादि के अभाव हो-सभी तो परिग्रह है। को अहिंसा माने बैठे है। और हिंसा व परिग्रह मे भेद ये तो 'जि' की देन है, जो उन्होने वस्तुतत्व को नही कर रहे । ऐसे लोगो का कहना है कि अमृतचन्द्रा. बिना किसी भेदभाव के उजागर किया और अपरिग्रह को चार्य ने कहा है किसिरमोर रखा औ अहिसाद सभी में इस अपरिग्रह 'अप्रादुर्भाव. खलु रागदोना भवत्याहिंसेति । को हेतु बताया। पिछले दिनो हम भी खुश ल बन्द गोरा- तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य सक्षेपः ।। वाला का पत्र मिला है । पत्र का साराश यह है कि चारो ऐसे लोगों को सूक्ष्म दृष्टि से कार्य-कारण की व्यवस्था कपायो और पावो पापो में काय क रण की व्यवस्था को देखना चाहिए । आचार्य ने यहां कारणरूप रागादिक उल्टी है। कार्य निर्देश पहिले और कारण-निर्देश अन्त म म वयं रूप हिंसा का उपचार किया है। रागादिक स्वय

Loading...

Page Navigation
1 ... 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168