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१०, वर्ष ४६, कि०२
लंगोटी लगाकर नदी पार करने पर भी कहते हैं कि नग्न स्वीकार करनी पड़ी। जान पड़ता है नारी मुक्ति को लेकर होकर नदी पार की तथा दर्जी या धोबी से वस्त्र जल्दी ही दोनों परम्पराएं एक दूसरे से बहुत दूर चलती गई। लेने के लिए कहते हैं कि भाई, जल्दी दो हम तो नंगे हो दर असल बात यों है कि जब से भारतीय संस्कृति रहे है-उसी प्रकार साधुओं के वस्त्र होते हुए भी अचेल- आत्मोन्मुखी या कहिए परमात्मोन्मुखी हुई तब से ही कत जानना चाहिए।
श्रमण उसकी आध्यात्मिकता के प्रतीक बन गए । महावीर उपरोक्त अवतरणों से साफ प्रकट है कि श्वेताम्बर और बुद्ध के जमाने में और उससे पहले भी दिगम्बरस्व परम्परा के अनुमार भी भगवान महावीर उस समय श्रामण्य का प्रतीक बन चुका था। कई श्रमण नग्न विहार दिगम्बर थे जब उन्हें केवल ज्ञान हमा और मुक्ति प्राप्त करते थे। मक्खलि गोसाल नंगा रहता था। पूर्णकस्सप ने की। इन्हीं को ध्यान में रखकर सुखलाल जी सघवी ने भी वस्त्र धारण करना इसलिए स्वीकार नहीं किया कि लिखा कि भगवान महावीर ने अपने शासन में दोनों दलो दिगम्बर रहने से ही मेरी प्रतिष्ठा रहेगी। प्रसेनजित के का स्थान निश्चित किया जो बिल्कुल नग्न जीवी व उत्कट कोषाध्यक्ष मगांक के पुत्र पूर्ण बर्द्धन की स्त्री विशाखा ने विहारी थे और जो बिलकुल नग्न नही थे ऐसा मध्यम- कहा था कि भगवन् बरसात के दिनो मे वस्त्रहीन भिक्षुओ मार्गी था। उन दोनों दलों के आचारों के विषय मे मत. को बड़ा कष्ट होता है इसलिए मैं चाहती है कि सघ को भेद रहा।
वस्त्र दान करूं।" यो देखा जाए तो हर धर्म मे यह श्रमण विचार करने से जान पडता है कि जिस प्रकार परम्पग अंशाधिक रूप में पाई जाती है और भारत की श्वेताम्बर परम्परा मे तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र श्रमण परम्परा मे नवीनता नहीं है, विशेषता अवश्य है। और अवस्त्र की मर्यादाएं रखी गई हैं, ठीक-ठीक वही है विशेषता है त्याग की और यही विशेषता जैन धर्म में मर्यादाए दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक, ऐलक, दिगम्बर और भी विशिष्ट हो गई है। जब श्रमण महत्याग करके मनि के रूप मे प्रस्थापित की गई है। मागे चलकर यह अनगार हो जाता है तो फिर उस अवस्था को अवश्य भेद यों बढ़ा कि श्वेताम्बर परम्परा सवस्त्र मुक्ति मानती पहचेगा जब वस्त्र उसकी सिद्धि में बाधक लगने लगेगा। है जबकि दिगम्बर परम्परा दिगम्बर होने के बिना मुक्ति यही कारण है कि जैन धर्म के श्वेताम्बर आगम भी की कल्पना भी नहीं करती। इसका कारण शायद स्त्री दिगम्बरत्व की विशेषता को अनदेखा नही कर सके और मक्ति की सम्भावना पर टिका है । दोनो ही परम्पराए उसे कल्प का सर्व प्रथम रूप मानकर उसके बारे मे लिखा। स्त्री के लिए आवाण आवश्यक मानती हैं । अतः दिगम्ब- इस लेख से श्वेताम्बर समाज के उस वर्ग को प्रोत्सारत्व पर पूर्ण बल देने वाली परम्परा ने नारी मुक्ति का ही हित करना है जो दिगम्बरत्व के प्रति आदर भाव तथा निषेध कर दिया जबकि श्वेताम्बर परम्पर। ने सावरण स्त्री समभाव रखने के अपने आगम आदेश को पूर्ण सम्मान मुक्ति स्वीकार कर ली तो फिर सावरण पुरुष कीमुक्ति भी देकर उसका पालन करे।
पाव-टिप्पण ८. अंग सुत्ताणि जैन विश्व भारती, लाडनूं भाग १, १०. सघवी सुखलाल, तत्त्वार्थ सूत्र, भारत जैन महामण्डल, ___ नवम ठाण, पृ० ८६१ ।
वर्धा परिचय पृ. २२-२३ । t. la) कल्पसूत्र विनयगरिण विरचित सुबोधिकावृत्ति, ११. भदन्त बोधानन्द महास्थविर- भगवान गौतम बुद्ध,
जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६१५, षष्ठ क्षण, सूत्र ११८, पाना १५७.
प्र० बुद्ध विहार, लखनऊ। (b) कल्पसूत्र, प्राकृत भारती, जयपुर, सूत्र ११४-१५.
१२. डा. रमेशचन्द जैन, बौद्ध साहित्य मे निगण्ठो का (c) Sacred books of the East-Jain Sutras p. I, Motilal Banarsidas, 2964, Kalp
उल्लेख, महावीर स्मारिका, राजस्थान जैन सभा, Sutra DP.
जयपुर १९६२, पृ. ३, ६ व ११।