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चन्देलकालीन मवनमागरपुर के श्रारक
अधिक प्रतिष्ठायें क्यों हुई थी? इन प्रश्नो का स्पष्ट उत्तर के आस-पाम रहा है"। गर्गराट जाति वर्तमान में गंगेरदेने मे हम ममक्ष नहीं है। यह एक रहस्य ही है। वाल या गगराहे कहलाती है। ई० १५वी-१८ती मदी
इस क्षेत्र मे बसने वाली सबसे पुरानी न्यातें गृहाति के लेखको ने इसे गगेडा, गंगरा आदि लिखा है। ये व गोलापूर्व है। गृहपति जैनामुकिा मे सभवतः नवनी- प्राचीन काल में राजस्थान-महाप्रदेश सीमा पर स्थित, दसवीं शताब्दी में पद्म वती के आमपास से आकर बसे झालावाड जिले के गगराड (गंगधार) स्थान के वासी थे। थे। ये अधिकतर जैन थे, पर कुछ शैव व संभवतः कुछ महडितवार (-मेडवाल) राजस्थान के मेडता स्थान के बौद्ध भी थे"। किमी किमी का राजदरबार मे अच्छा वामी थे। इन्हें ही मेडतवाल कहा जाता है। ये वर्तमान आदर था। खजुराहों में इसकी अच्छी बस्ती थी और काल सब वैष्णव हैं । देउवा ल देशवाल ही होना चाहिए। वहां के मम्भवत सभी चन्देलबालीन जिनालय इनके ही ये भी वर्तमान काल मे नही मिलते। सम्भव है वैष्णवों बनवाये मालम होते है। ये ही वर्तमान मे गहोई कहलाते या श्वेताम्बरो मे मिल गये हो। हैं। इनके १२ गोत्र है जो ६.६ अलो मे विभक्त हैं। महेषणउ या महिषपुरवार माभवत: वही जाति अहार के पास ही खरगापुर स्थान है जिसे गहोइयो का होना चाहिए जिसे आज महेसरी या माहेपरी कहते हैं। प्राचीन केन्द्र माना जाता है"। बणपुर के गृहपति, ये अधिकार वैष्णव ही रहे है, फिर भी ई० १६१५ मे जिनने बाणपूर या महमकट लिनालय, मदनमागापुर की १६ महे। जै। थे। ये राजस्थान में किमी महेशन स्थान विशान शौनिकाय प्रतिमा आदि का निर्माण कराया था, के निवासी लगते है। वे कोच्छल्ल गो। के मालम होते हैं । गृहपति जाति के माथुर (माधुव, मधु) मथुरा के प्राचीन निवासी है। १३वी सदी तक के जैन मूति लेख मिलते हैं। वर्तमान में यह वैश्य जाति आज भी है पर इनमे कोई भी जैन नही सभी गहोई वैष्णव है, पर दो-तीन सौ वर्ष पहले तक है। मथुर. को मधुरा या (मधुवन) भी कहा जाता था। इनमे सम्भवतः कुछ जैन थे। गोलापूर्व भी हवी-१०वी यह शक-कुपारण काल में जनो का अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र सदी से इस क्षेत्र के निवासी लगते है। इनमें एक बेक था ! इस काल मे सभी वर्गों के लोग जैन धर्म मानते चरिगा कहलाता है, जिसे पहले पद्मावती गोत्र का थे"। मथग मे काष्ठवणिक, मानिकर (जोहग), लोहमाना जाता था। अत: सम्भव है कि इनके पूर्वज गोल्ला वणिक, भार्थवाह, रागिन (रग रेज), गधिक, ग्रामिक गढ (या गोल्लापुर) से पद्मावती जाकर बसे हो व फिर ग्राम प्रमुख), पुजारी, लोहिककारक, हैरक (सुनार), वहां से जंजा भक्ति मे आकर बमे हो।
कल्यपाल गणिका आदि वर्ग के व्यक्तियो द्वारा प्रति ठाये पोरपाट या पोरवाल वर्तमान में परकार कहलात है। विय जाने के उल्लेख मिलते"। हणो के साक्रमण के ये बदेलो वा राज्य हो जान के बाद बड़ी सख्या मे चदेरी बाद मथग का प्राचीन सय छिन्न-भिन्न हो गय! । कालामहल में आकर बम थ"। इसी प्रकार से गोलाराड सरमथरा में प्राचीनकाल से निवास करने वाले वैश्य गोलालारे कहल ते है और ये भी बुदे के राज्यकाल में
माथुर कहला)। बारहवी शताब्दी के इनके लेख मदनस आकर बम " । चदैला के राज्य में इन्हे मागरपुर व अन्य स्थानों में मिले हैं। माथर जी के लख परदशी ही माना जाना चाहिए । अवधपुरा (इसे अबध्या- इसके बाद प्राप्त नही होते है। पुरा भी पड़ा गया है) को १८वी सदी के खको ने अयो
खडेलवाल या (खडिलवाल) उत्तर भारत की प्रसिद्ध ध्यापूरी या अयोध्यापूर्व लिखा था"। ये अब अयोध्या- जाति है जो शेखावाटी के प्राचीन खडेला नगरस निकलो वासी कहलात है। फिर भा ई. १६०५ से ५६२ अयोध्या- है। इनम स जो जैन हात है वे सरावगा (श्रापक) कहयासी जैन थे। इनका भी बुदेलखड में निवास है पर लाते है"। जैन व वैष्णव खडेलवालो को न्याते अलगइनका कोई इतिहास ज्ञात नहीं है।
अलग है। लमेच व जैसवाल जातियो का प्राचीन निवास चंबल अत: यह पता चलता है कि मदनसागरपुर में न