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२४, वर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त
ठहरते हैं। डॉ० साहब कष्ट उठाकर भण्डारी में जाते. जिस स्थल पर वर मिलती है वहीं ली जा सकती हैंप्राचीन प्रतियो का अध्ययन करते और उसी सूत्र मे उसी मवंत्र नही । महावीर जैन विद्य लय के संस्करण मे आगस्थल पर इनके द्वारा सुझाया गया पाठ उपलब्ध है ऐसा मोदय समिति सस्करण की अपेक्षा 'त' श्रुति की भरमार बताते तब तो छ आधार बनता, वरना इनका पाठ गले है परन्तु एक भी जगह बिना आदर्श का आधार लिए नही नहीं उतरेगा।
है। विडम्बना यह है कि डॉ. चन्द्रा ने अपने सारे निष्कर्ष असल आगम पाठ क्या है ? बस इसका ही निर्धारण बिना असल प्रतियो के देखे केवल छपी पुस्तको-द्वितीय करे। आपकी गय मे क्या होना चाहिए या हो सकता है स्तर को साक्ष्य (Secondary evidence) के आधार पर यह अनधिकार चेष्टा है। वास्तव मे पाश्चात्य जगत् से निकाले है जिन्हें प्रायः साधारण अदालत भी नही मानती भई 'सपादन' नाम से पहिचाने जाने वाली प्रक्रिया आगमो है। यदि वे गहराई मे जाते तो अपना मामला मजबूत पर लागु ही नही होती है क्योकि न तो हम सर्वज्ञ है न कर सके होते। गणधर और न आगमधर स्थविर है (नियुक्ति व चूणिकार अर्द्धमागधी भाषा के प्राचीन रूप का तर्क भी शक्तिने तो थेर शब्द का अर्थ भी गणधर ही किया है- (देख
हीन है। भगवान ने तीर्थ को प्ररूपणा की थी, न कि अर्द्ध
टीम | Hala द्वितीय स्कन्ध का प्रारम) अन्य आगमो भे या स्वय अचा. मागधी भाषा की। वह भाषा तो उनसे पूर्व भी प्रचलित राड मे अन्यत्र अमुक पाठ मिलता है इसलिए यहा भी थी--उनसे भी बहुत पुरानी है। भाषावली की कठोर वैसा ही पाठ होना अहिए, दम तक में काई बल नहीं सीमा रेखाए नही खेची जा सकती है तथा एक प्रदेश व
-यह दतरफा है। इसके अतिरिक्त यह कोई नियम एक युग म सभी व्यक्ति एक-सी हा भाषा व्यापरते हैं यह नही है कि एक व्यक्ति सदैव एक सरीखा ही बोलता है। सिद्धान्त भी नही बनता है। भिन्न-भिन्न जातियो की, श्रोताओ की भिन्नता, स्थल को भिन्नता आदि कारणवश शहरो ६ गावो की, अनपढ़ व पण्डितों की बोलियो मे अथवा बिना कारण भी, हम गद्य पद्य छंद मात्रा अलकार, अन्तर होता है-पारिभाषिक शब्दावली भी अपनी-अपनी कभी लोक तो भी लोग, कमी पानी तो कभी जन, कभी अलग होती है। आज २१वी सदी में भी मारवाड़ी लोगो प्रशापना तो कभी पण्णवण्णा, कभी किंवा तो कभी अथवा, को बहियो व आपसी पत्र व्यवहार की भाषा व शंली १८वी कभी कागज तो कभी कागद, कभी भगवतो तो कभी शताब्दी से मेल खाती है और इसी कारण जैन समाज यह व्याख्याप्रज्ञप्ति, कभी प्रत्याख्यान तो भी पच्चक्खाण, कदापि स्वीकार करने वाला नहीं है कि बोड ग्रन्थो या कभी छापा तो कभी अखबार, कभी सुमरा तो कभी हुमरा, अशोक के शिलालेखो मे प्रयुक्त भाषा हमारे आदी की कभी मै तो कभी हम, कमी प्रतिक्रमण तो कभी पडिक्क अपेक्षा अधिक माननीय है एव जैनागमो मे अपना ली मणा, कभी रजस्ट्री तो कभी पजीकरण बोलते है । अर्थात् जानी चाहिए। हा आगमो का अर्थ समझने में भले ही हमारी बोली मे और विशेषतः सतत बिहारी साधु वर्ग में उनकी सहायता ली जाए किन्तु परितो से हमेशा हमारा श्रतिवैविध्य, शब्दवैविध्य (पर्यायवाची) और भाषा वंध्य वही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेलसेल का वही पाठ (अन्य भाषा के शब्द) होता है।
हमे प्रदान करे जो तीर्थकरो ने अर्थ रूप से प्ररूपित और डॉ. चन्द्रा ने ३८ भेद (यकात/उदवृतस्वर करक) ७ गणधरी ने सूत्ररूप से सकलित किया था। हमारे लिए भेद (ग का क करके) ३ भेद (ह का ध करके) २ भेद वही सर्वथा शुद्ध है। सर्वज्ञो को जिस अक्षर शब्द पद
डढ का द्ध करक) १ भेद (य का च काके) और १ भेद वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था वह सूचित कर (य का ज करके) कुल ५२ भेद श्रुति आधारित किए है गए-अब उसमे कोई असर्वज्ञ फेरबदल नही कर सकता। जिनमे केवल ६ आदर्श सम्मत है (जो उपरोक्त ७ को उसकी अपेक्षा अक्षर व्यजन मात्रा भी गलत, कम या सख्या में समाविष्ट कर लिए गए है)। हमारा यह कहना अधिक बोलने पर जानाचार को अतिचार लगता हैनही है कि आगमो म 'त' श्रुति नहीं है। पर आदर्शों मे प्रतिक्रमण मे प्रायश्चित्त करना पड़ता है।