Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 78
________________ अभिज्ञान शाकुन्तल में अहिंसा के प्रसंग विश्वस्त होकर रहने हैं और सब प्रकार के शब्दों के प्रति छठे अंक में जब श्याल मत्स्योपजीवी को हमी उडाता है सहिष्णु हो जाते हैं। रक्षा के कार्य मे राजा का सबसे वह तो अनुकम्पामदु श्रोत्रिय का उदाहरण देकर अपने बड़ा योग होता है। तप का सचय प्रतिदिन करने के जीविकोपार्जन की पद्धति का औचित्य सिद्ध करना चाहता कारण राजा राजर्षि कहलाता है शहजे किल जे विणिन्दिए ण ह दे कम्म विवज्जणीअए । अध्याक्रान्तावसतिरमुनाऽप्याश्रमे सर्वभोग्ये । रक्षायोगादयमपि तपः प्रत्यह सञ्चिनोति ।। पशुमालणकम्मदालुणे अणुकम्पामिदु एव शोत्तिए ।। अभि. शाकु. ६.? अस्यापि द्या स्पशति वशिनश्चारणद्वन्द्वगीत: । अर्थात निन्दित भी जो काम वस्तुत. वश परम्परागत पुण्य' शब्दो मुनिरिति मुहुः केवल राजपूर्वः ।। है, उनको नही छोडना चाहिए । यज्ञ मे पशुओं को मारने अभिज्ञान शाकुन्तलम् २०१४ रूपी कार्य मे कठोरवत्ति वाले भी वेदपाठी ब्राह्मण दयाअहिंमक भावना से प्रोत-प्रोत स्नेह का पशु-पक्षियो भाव मे मदु ही कहे जाते है। और वृक्षो पर प्रभाव पड़ता है। वे भी अपने स्नेही के ऐसा लगता है, कालिदास के समय ज्ञो में जो पशु वियोग मे कातर हो जाते है। शकुन्तला के वियोग मे हिंसा होती थी, उसे जन सामान्य अच्छा नही समझता पशपक्षियो की ऐसी ही दशा का चित्रण कालिदास ने था। छठे अडू मे ही जब राजा मान का स्वागत किया है-- उग्गलिअदब्भकवला मिया परिच्चत्तणच्चणा मोरा। करता है तो विदूषक कहता है ---ह जेण इट्टिपसुमार मारिदो मो इमिणा सापदण अहिणन्द। आंद' अर्थात ओसरिअपडुपत्ता मुअन्ति अस्सू विअ लदाओ ।। जिसने मुझे यज्ञिय पशु की मार मारा है, उसका यह अभिज्ञान शाकुन्तलम् ४१२ स्वागत के द्वारा अभिनन्दन कर रहे है। अर्थात् शकुन्तला के वियोग के कारण हिरणिओ ने जहाँ अहिंसा और प्रेम होता है, वहाँ विश्वाम की कुशो के ग्रास उगल दिए, मोरो ने नाचना छोड दिया भावना प्रबल होती है। छठे अङ्क मे चित्रकारी के नैपुण्य और लतायें मानो आँसू बहा रही है। की पराकाष्ठा को प्राप्त एक कृति गजा बनाना चाहता शकन्तला के द्वारा पुत्र के रूप मे पाला गया मग इतना सवेदनशील है कि शकुन्तला को विदाई के समय कार्यास कतलीन हममिथुना स्रोनीवहा मालिनी । वह उसका मार्ग ही नही छोडना है - पादास्तातो निषण्णहरिणा गौरीगुगे: पावना.।। यस्य त्वया व्रणविरोपणमिगुदीना। शाखालम्बिन वल्कनग्य च तरोनिर्मातुमिच्छाम्राधः । तल न्यपिच्यत् मुखे कुश सूचिविवे॥ शृगे कृष्णम गम्य वामनान कडूयमाना मृगीम् ॥ श्यामाकमुष्टि परिवद्धितको जहाति । अभि. श कु. ६१७ सोऽय न पुत्रकृतक: पदवी मृगस्ते ।। जिसके रेतीले किनारे पर हसो के जोड़े बैठे हुए है, अभि. शाकु. ४।१४ ऐमी मालिनी नदी बनाती है, उसके दोनो ओर जिन पर अर्थात् जिनके कुशो के अग्रभाग से बिधे हुए मुख मे हिरण बैठे हुए है ऐसे हिमालय की पवि। पहाड़ियाँ तुम्हारे द्वारा घावो को भरने वाला इन्गुदी का तेन लगाया बनाई है, जिनकी शाखाओ पर वल्कल लटके हुए है. ऐसे गया था, वही यह सावा की मुट्ठिओ (ग्रासों) को खिला वृक्ष के नीचे कृष्णमग के सोग पर अपनी बाई आँख कर बड़ा किया गया और तुम्हारे द्वारा पुत्र के समान खु जाती हुई मृगी को बनाना चाहता हूँ पाला गया मग तुम्हारे मार्ग को नहीं छोड़ रहा है। हममिथुन प्रेम का प्रतीक है। प्रेम की अवतारणा जीवन मे अहिंसा की भावना सर्वोपरि है। जिसके कृष्णमग और मुगी में हुई है। ममी को मार इता जीवन में अहिंमक आचरण नहीं है, उसका लोकनिन्दिन अगाध विश्वास और प्रेम है कि वह उसके सीग पर जीविका वाले व्यक्ति भी उपहास करते हैं। शाकुन्तल के अपनी बायी आख खुजला रही है। (शेष प० ४ पर)

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