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प्राचार्य कुन्दकुम्ब को दृष्टि में जिनदोक्षा : एक अध्ययन
काटने से एक बार ही मरण होता है किन्तु उन्मार्गी गुरु परिग्रह से रहित प्रव्रज्या, जिनदीक्षा का रूप स्वरूप है मानने से अनन्त भव जन्म-मरण करना पड़ता है । इस जो निम्न विवरण या अवस्था से स्पष्ट होता है :महापाप से बचने हेतु जिन दोक्षा उन्ही भव्य आत्माओ को १ -जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह ग्रहण करना चाहिये जो अन्तरग-बहिरंग परिग्रह का से रहित है वह दीक्षा (प्रव्रज्या) है, जिसको मोह नष्ट हो त्याग, भख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि बाइस परिषहो का गया, वह देव है जिससे सब जीवो का कल्याण (उदय) समतापूर्वक सहने एव आत्मस्वरूप मे लीन रहने की होता है (बोध पा० २५) । क्षमता प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा; पद के अयोग्य २ जिनदीक्षाधारी साधु, गह (घर) और ग्रन्थ व्यक्ति को उच्च पद देने से जिन मार्ग उपहास का विषय । (परिग्रह) मोह-ममत्व तथा इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से रहित बनता है।
होते हैं, बाइम परिषह सहन करते है, कायो को जीतते दीक्षा का प्रथम सोपान : भावद्धि:
हैं और पापारमा से रहित होते है (बोध पा० ४५) जिनदीक्षा का प्रथम मोपान भावशुद्धि है। आचार्य
३---वे समत्व एव माध्यस्थ भाव वाले होते हैं । कुन्दकुन्द ने दर्शनप हुड में मम्यग दर्शन पे महत्व को शत्रु-मित्र, निदा-प्रशसा, लाभ-अलाभ और तण कच अकिन किया है। उनके अनुमार दर्शन ही धर्म का मूत्र मे उनका सम भाव होता है (बोध पा० ४५) । है । सम् कत्व के बिना धर्म भी नही होता। (गाया २)।
४-वे निग्रन्थ, पर वस्तु, स्त्री आदि के सगरहित, जो दर्शन भ्रष्ट है; ज्ञान भ्रष्ट है, चारि भ्रष्ट है वे जीव निरभिमान, आशा-राग-द्वेष र हत, निर्मम, निर्लोभ. भ्रष्ट से भ्रष्ट है (गाथा )। भाव पाहुड मे सम्यग्दर्शन निहि, निविकार, निष्कलुषित, निर्भय, निसाक्षी, रहित पुरुष को "चलश' अर्थात चलता हुआ मृतक निरायुध, शशांत, यथा जातरूप होते हैं (बोध पा से जमा माना है । (गाथा १४३)। आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनदीक्षा की पूर्व स्थिति के ५-३ उपशम, शम, दम, युक्त होते हैं अर्थात उनके
मोर परिणाम शान होते है, क्षमाशील एवं इन्द्रिय विषयो से कर भाव से अन्तरग नग्न हो, पीछे मुनि रूप द्रव्य
विरक्त रहते है। स्नान, तेल, मदन आदि शरीर सस्कार बालिग जिन आज्ञा से प्रकट करे, यही मोक्षमार्ग है नहीं करते। मद, राग, द्वेष रहित होते है। (बो. (भाव पा०७३)। भाव ही स्वर्ग और मोक्ष का कारण पा० ५२)। है। भाव रहित श्रमण पापस्वरूप है। तियंच गति का ६-वे बारह प्रकार के अन्तर-बाह्य, तप, पांव स्थान तथा कर्म मल से मलिन चित्त वाला है (गा० ७४)। महाव्रत, पांच इद्रिय एब मन का निरोध, रूप, सयम, इसलिए अन्त र-बाह्य भाव दोषो से अत्यन्त शुद्ध होकर छहकाय के जीवो की रक्षा, सम्यक्त्व आदि गुणो से युक्त निर्ग्रन्थ जिनदीक्षा धारण करना चाहिए (गाथा ७०)। ओर अन्तरग भावो से शुद्ध होते हैं (बोध पा० ५८/२०।। जिनवीक्षा का अन्तर-बाह्य रूप-स्वरूप:
७-जिनदीक्षाधारी स.धु सूने घर, वृक्ष का मूल वीतरागता अर्थात् मोह-क्षोभ रहित धर्मस्वरूप कोटर, उद्यान, वन, शमशान भूमि, पर्वत की गुफा या सोम्य परिणामो की प्राप्ति हेतु भावशुद्धि सहित, उभय शिखर, भयानक वन, आदि एव शांत स्थान मे रहते हैं परिग्रह रहित अपने ज्ञाता दृष्टा स्वभाव मे रमण करने (बो० पा० ४२ से ४४ । का उपक्रम जितदीक्षा है। अध्यात्म के अमर ज्ञायक -वे पशु-नियंच, महिला, नपुसक तथा व्यभिआचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पच परमागम मे विश्व व्यवस्था चारी पुरुष के साथ नहीं रहने और शास्त्र स्वाध्याय आत्मस्वरूप, जिनलिग, जिनदीक्षा तथा श्रावक साधुओ तया धर्म-शुक्न ध्यान से युक्त होते है (गाथा ५७) । के रूप-स्वरूप पर बहुत ही व्यापक प्रकाश डाला है। 6-साधु लोक व्यवहार के कार्य मे सोता है उनके अनुसार 'पवना सव्वसग परिचत्त' अर्थात सर्व वह अपने आत्म स्वरूप मे सदैव जागरूक रहता है किन्त