Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 82
________________ आचार्य कुनकुन्द की दृष्टि में जिनदीक्षा : एक अध्ययन खडे-खड़े भोजन, एक बार आहार यह माधु के २८ मून देश सयम (अणुव्रत) होता है। इसमे तुच्छ सो क्रोधादि गुण हैं जिनका निरतिवार पालन करते हुए यय शक्त की प्रवृत्ति व्रती श्रावक की होती है। तप द्वारा आत्मा मे वीतरागता के अशो मे वृद्धि कर ३-क्रोधादि प्रत्याख्यानादि कषयों के अभाव मे है (गाथा २०८/२०१)। मुनिधर्म रूप सकल चारित्र होता है। इसमे मदतर ५-- शास्त्रो के अनुसार श्रमण शुद्धोपयोगी एवं क्रोधादि का सद्भाव होता है। शुभोपयोगी दोनो होते है । प्रथम निराश्रव तथा शेष ४-क्रोधादि सज्वलनादि कषायो के अभाव में आश्रव सहित है। (गाथा २४५) । यथाख्यात चारित्र होता है। इसमे उत्तर गुणों के दोषों जिनदीक्षा में कर्मों की नैमित्तिक पृष्ठ भूमि: का भी अभाव हो जाता है। कर्म बन्ध को अवधारणा जैनदर्शन का महत्वपूर्ण यदि श्रावक अन्याय रूप प्रवत्ति एव अमर्यादित सिद्धान्त है जिसकी मधु दीसा के मदर्भ मे नैमित्तिक क्रोधादि करे तथा निर्ग्रन्थ माधु बुद्धिपूर्वक या सप्रयोजन भमिका समझना आय है क्योकि अनादिकाल से कम क्रोधादि से पीडिन हो, तब उसमे स्पा होता है कि बध के कारण ही आत्म अपद्धान, अज्ञान एवं असयम से । उन्होने अपनी पात्रता से अधिक ऊचा पद ले रखा है जो दु:खी है। जिनदीमा की प्रक्रिया व मर्यादा के प्रकिल है। मम्यग्दर्णन का प्रतिरोधक दर्शन मोह कम है जिसके। ज्य काल मे तत्तोको यथार्थ प्रतीत नही होगी। आम साधक बुद्धिपूर्वक आगम-स्वाध्याय, तत्वविचार, सम्बग्यज्ञान का प्रतिरोधक ज्ञानावरण कर्म है जो ज्ञान गुण एव आत्मचिंतन की प्रक्रिया में जब उपयोग लगाता है तब को आवत करता है । सम्यग्चारित्र एव प्रात्म- परिणामो की विraat परिणामो की विशुद्धता के कारण मोह कर्म की स्थिति रमणता का प्रतिरोधक कर्म चारित्र मोह है। जिसके एव अनुभाग स्वमेव ही घटते है । मोह का अभाव होने से उदयकान में आत्मा मे राग-द्वेष-मोह आदि की उत्पत्ति शक्ति अनुमार गम्यग्दर्शन, देश संयम या सकल चारित्र होती और ज्ञान दर्शन स्वभाव रूप परिणमन नही हा अगीकार करने का पुरपार्थ प्रकट होता है। इस प्रकार पाता। चाग्नि मोह के २५ भेद हैं। इनमें क्रोध, मान, कषायों के उत्तरोत्तर अभाव एव उमसे उत्पन्न भाव माया, लोभ इन चार पायो के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्या शुद्धि से क्रमश अवती-श्रावक, व्रती-श्रावक एव मनि-धर्म स्यान, प्रत्याख्यान, एवं सज्वलन रूप से लह भेद हुए। धारण करने का पुरुषार्थ प्रकट होता है। हास्य. रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष, द्रव्यलिंगी साध से प्रती-अवतो धावक को श्रेष्ठता: नमक, वेद यह नौ कषाय हैं। अपना ज्ञाता दृष्टा जिनवरों के मार्ग में भावों को ही प्रधानता है। स्वभाव छोडकर पर दव्या में राग-द्वेष भाव उत्पन्न द्रव्यलिंगी साधु मन्द कषायपूर्वक कटोर तपस्या करता हैं करना ही कपाय का कार्य है। और २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करता है फिर आत्मा और कर्म के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों को भी सम्यग्दर्शन के अभाव मे, नवमे ग्रेवेयक तक जाकर दष्टिगत कर कारणानयोग शास्त्रों में जिन दीक्षा के फिर समर मmarat उत्तरोत्तर हासोन्मख कषाय के मानदण्ड निर्धारित किये सम्यग्दृष्टि सोलहवें स्वर्ग तक जाकर भी मोक्ष का अधिहैं जो इस प्रकार है : कारी होता है। १-क्रोधादि अनन्तानबन्धी कपायो के अभाव मे प्रवचनसार मे आत्म-ज्ञान शून्य सयम साव को आत्म श्रद्धान रूप सम्पकत्व होता है। इसमे मर्यादित अकार्यकारी वहा (गाथा २३६) । मिथ्यात्व एव अन्य क्रोधादि तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल के विचार सहित न्याय सहित यदि कोई मुनि भेष धारण करता है तो भी वह रूप प्रवृत्ति अब्रती स्रावक की होती है। श्रावक के समान भी नही है (भा. पा० १५५) भाब २-क्रोधादि अप्रत्याख्यानादि कषायों के अभाव मे (शेष पृ०८ पर)

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