Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 81
________________ ६, वर्ष ४६, कि०३ जो लोक व्यवहार मे जागरूक होता है वह आत्म स्वरूप को पाकर कोई जीव सिद्ध पद को भी प्राप्त कर ले मे सोता है (मोक्ष पा० ३१)। (मो० मा० प्र० पृष्ठ ३३.)। जिनदीक्षा का आधार, पान, काल एवं प्रक्रिया: (ब) जिनदोक्षा के पात्र एवं काल : जिनदीक्षा का आध्यात्मिक आधार स्वाध्याय एव ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का कोई निरोग, तप तत्व-विचार है जिस पर वीतराग विज्ञान का समूचा मे समर्थ, सुन्दर, दुराचारादि लोकापवाद से रहित पुरुष महल अवस्थित है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार को ही जिनदीक्षा ग्रहण करने योग्य होता है । अति बालक चरणानुयोग सूचक चूलिका मे श्रमण धर्म स्वीकार करने और अति वृद्ध को जिनदीक्षा निषिद्ध है। सब शुद्ध भी को आधार भूमि, विधि, आचरण, धाम भेव-श्रामण्य छल्ल कदीक्षा के योग्य होते है । (प्र० सा० गाथा २२५ छेह, तप सामर्थ्य, निश्चय व्यवहार धर्म सहित २८ मूल प्रक्षेपक गाया २६)। दीक्षा ग्रहण में काल कोई बाधा नहीं गुणों का विस्तार वर्णन किया है जो मुनिधर्म के अन्तर- है। पचम युग मे भी निग्रन्थ साधु का सद्भाव स्वीकार बाह्य स्वरूप को दर्शाता है : किया है। यहा इतना विशेष है कि साधुपने बिना साधु (अ) आध्यात्मिक आधार : आगम अभ्यास मानकर गुरु मानने से मिथ्यादर्शन होता है (मो० मार्ग तत्व विचार: प्रकाशक पृष्ठ १६०)। एकाग्रता की प्राप्ति के लिए पदार्थों के स्वरूप का (स) दीक्षा की प्रक्रिया एवं स्वरूप : निश्चय होना आवश्यक है जो आत्म ज्ञान एव तत्वविचार आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनमार मे दुःखो से छुटकारा से ही सम्भव है। इमलिए 'आगम घेछ। तदोचेछा' के पाने हेत मिद्धों को प्रणाम कर म निधर्म अगीकार करने अनुसार आगम व्यापार ही श्रेष्ठ है (गाथा .३२)। की प्रेरणा देते हुए निम्न दीक्षाविधि र्शाते हैं :आगमहीन साधु न तो अपने को ही जानता है और न पर १-माता-पिता, पत्नी-पुत्र, और बन्धुवर्ग से पूछको ही। ऐसी स्थिति में वह कमों का नाश किस प्रकार कर ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और करेगा (गाथा २८३) । आगम के ज्ञाता माधु पागम चक्ष बीर्याचार को अगीकार करता है (गाथा २०२)। कहलाते हैं (गाथा २३५) । आगमहीन माधु असयमी होते २-कुल, रूप एव वय से विशिष्ट तथा गुणधारी हैं (गाथा २३६)। आगमज्ञान एवं तत्वार्थ श्रद्धान इन श्रमणोत्तम प्राचार्य की शरण में जाकर 'शुद्धात्म तत्व को दोनो सहित सयम की एकता ही मोक्ष मार्ग है (गाथा उपलब्धि रूप सिद्धि से मझे अनग्रहीत करो' ऐसा कहते २३७)। यही कारण है कि जो कर्म अज्ञानी लक्ष कोटि हुए दीक्षाभावना प्रकट करता है। "मै दूसरो का नही ह, भवों मे बालतप से खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार पर मेरे नही है, इस लोक मे मेरा कुछ भी नही है' ऐसा (मम. वचन, काय) से गुप्त होने से श्वास मात्र में खपा निधनयवान और जितेन्द्रिय होता हुआ नग्न दिगम्बर रूप देता है (२३८)। पारण करता है (गाथा २०३/२०४) । आचार्य प० टोडरमल के अनुमार 'मुनिपद लेने का ३-वह दाढी-मूंछ के बालो का लोचकर शारीरिक क्रम तो यह है पहले तत्व विचार होता है, पश्चात् उदा. शृगार से रहित यथाजात बालक जैसा होता है। वह सोन परिणाम होते है। परिषहादि सहने की शक्ति होती हिमादि, ममत्व और आरम्भ रहित उपयोग एवं योग की है तब वह स्वयमेव मुनि होना चाहता है और तब शुद्धि सहित होता है जो मोक्ष का कारण है गाथा श्री गुरु मनि धर्म अगीकार कराते है (मो• मा० प्र० पृष्ठ (२०५/२०६) १७६)। प. जी आगे कहते है कि पहले तो देवादिक ४--वह गुरु द्वारा वणित साधु क्रिया सुनक माधु के का श्रद्धान हो, फिर तत्वो का विचार हो, फिर पापर २८ मूलगुणो को धारण करता हुआ सात्मस्थ होता है। का चितवन करे फिर केवल आत्मा का चितवन करे। पांच महाव्रत, पांच समिति, इन्द्रिय विजय, केश लोच, इम अनक्रम से साधन करे तो परम्परा सच्चे मोक्षमार्ग आवश्यक, अचेल कपना, अस्नान, भूमिशयन, अदतधावन

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