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२६, वर्ष ४६, कि०२
अनेकान्त
को सबने विकल्प में स्वीकार किया ही है और चणिकार, पनपता है और उनकी भावनाओं को ठेस भी पहुंचती है। वत्तिकार आदि ने इसकी व्याख्या की ही है। तो फिर अत: आत्मनिरीक्षण करें कि जो कार्य आप श्रत सेवा व इस पाण्डित्य प्रदर्शन का लाभ क्या? पहाड खोजने पर निर्जरा का कारण समझकर कर रहे हैं वह कहीं आश्रव व पहा भी नहीं निकला ऐसा कहा जा सकता है। कर्मों का बन्धन तो नहीं है। याद रखें कि गलत ग्रन्थ
ग्रन्थकार की अपकीति को चिरस्थायी कर देता है । और डा. के इस प्रयत्न को, जैनागमों के संशोधन व म
अन्त में होगा यह कि गुडगांव व राजकोट (अहमदाबाद)
नोगत संपादन प्रक्रिया को नयी दिशा का बोध देने वाला बनाया से छपे आगमों की तरह आपका संस्करण भी बहिष्कृत गया है। नवीनता का शोक सबको-बूढों को भी होता कर दिया जाएगा। हमारा मन्तव्य यह नही है कि प्रतिहै. लेकिन कृपा कर आगमो पो इस मानसिक चंचलता का लिपि करने में भलचक अस्वाभाविक है, लेकिन आदी शिकार न होने दें। आगमों का सशोधन या सपादन के का मिलान कर सर्वसम्मति से उनका परिष्करण बिल्कूल बहाने पूनलेखन जैसी वस्तु हर प्रकार से अक्षम्य है- माभव है -प्रादशों से हटने की कतई आवश्यकता नही मनमानी का पथ प्रशस्त करने वाली सिद्ध हो सकती है। है। भूलो का परिमार्जन लो हिसाब, कानन आदि मे सर्वत्र हमारे आगम पुराने है और उनके लिए पुरानी दृष्टि ही होता ही है क्योकि वन्त, भूल अस्तित्वहीन है, नही अधिक उपयुक्त है क्योकि वह आगम युग के समीपस्थ है। (Nullity) गिनी जाती है। किन्तु जहा, भून हुई हो ऐसा लाख-लाख धर्मानुयायी इन पाठो को पवित्र मत्र समझते कहा नही जा सकता, वहा मल सुधार की ओट लेकर है, श्रद्धापूर्वक कठस्थ व नित्य पारायण करते है। भाषा
आगमपाठो मे घुमपंस काना अनुचित है। आदर्शविहीन विज्ञान के चौखटे मे फिट करने के लिए प्राचीन आदर्शों इस भाषाविज्ञान की दृष्टि मे आगम संशोधन का विरोध में उपलब्ध एव सदियों से प्रचलित पाठों में कांट-छांट होना चाहिए। करने से सामान्यजन की आस्था हिलती है, उनमे बुद्धिभेद
(तुलसी प्रज्ञा से साभार)
सम्पादकीय टिप्पण-श्री जोहरीमल पारख ने आर्ष भाषा के सरक्षण की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करने का पुण्य कार्य किया है। श्वेताम्बर आगमों को ही क्यों ? कुछ विज्ञों ने तो दिगम्बर आगमों की भाषा को भ्रष्ट तक घोषित कर वर्षों पूर्व से-आगा-पीछा सोचे बिना, उन्हें बाद के निर्मित (पश्चाद्वर्ती) व्याकरण से बांध, शुद्धि-करण का नाटक रच रखा है और हम किसी भी बदलाव का बराबर विरोध करते रहे हैं। पर, इस अर्थ-प्रधान समाज में कुछ कहना 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' जैसा हो रहा है फिर भी हमारे आंसू पोंछने के लिए हमें निवेदन मिले हैं कि हम ही जागम शुद्ध कर दें। पर, हम ऐसो दुश्चेष्टा, जिससे मूल-आगम भाषा का लोप होने को परम्परा चाल करने का प्रारम्भ होने को बल मिले और आगम लुप्त हों तथा अल्पज्ञों को यह कहने का अवसर मिले कि वे सर्वज्ञों की परम्परागत वाणी को भी शुद्ध करने जैसा श्रेय पा सके हैं के सदा विरोधी हैं।
इस संदर्भ में हम श्री पारख जी के हम-सफर हैं। उनकी इस जागरुकता के लिए उन्हें बधाई देते हैं और आशा करते हैं कि समाज भाषा को समझ या न समझे पर, इतना तो अवश्य ही समझेगा कि उसके आगम जैसे, जिस रूप में हैं, सही हैं-'नान्यथाषादिनो जिनाः।'
-संपादक