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प्राकृत एव अपभ्रंश भाषा में सुलोचनाचरित
छोटे भाई के साथ भगवान वृषभदेव के पास गये और रूप धारण कर ग्रस लिया जिससे जयकुमार सुलोचना दीक्षा लेकर मोक्ष मुख का अनुभव करने नगे। नरकुमार हाथी सहेत गगा में डूबने लगे। तब सुलोचना ने पच ने राज्य-भार सभाल लिया।
नमस्कार मंत्र को आराधना से उस उपसर्ग को दूर किया। इसी भरतक्षेत्र में काशी नाम का देश है । इस काशी हस्तिनापुर पहुच कर जयकुमार और सुलोचना ने अनेक देश में एक वाराणसी नाम की नगरी थी अपने नाम से सुख भोग। ही शत्रुनों को कम्पित कर देने वाला राजा अकम्पन उस किसी अन्य समय जयकुमार अपने महल के छत पर नगरी का स्वामी था। उसके प्रभा नाम की देवी थी। आरूढ हो शोभा के लिए बनवाये हुए कृत्रिम हाथी पर उम सुप्रभा देवी से नाथ वश के अग्रगण राजा अकम्पन आनन्द मे बैठा हुआ था, इतने में उसे विद्याधर दम्पति के अपनी दीप्ति के द्वारा दिशाओ को वश मे करने वाले दिखे उन्हे देखकर "हा मेरी प्रभावती" इस प्रकार कहकर हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे। अकम्पन और रानी सुप्रभा मूच्छित हो गया। इसी प्रकार सुलोचना सबूतर का जोड़ा के सुलोचना तथा लक्ष्मीपति ये उत्तम लक्षणों वाली दो देखकर "हे मेरे रतिवर' कहकर मूच्छित हो गई। मूच्छितकन्यायें उत्पन्न हुई थी उस सुलोचना ने श्री जिनेन्द्र देव रहित होने पर जयकुमार ने सुलोचना से पूछा कि तुम की अनेक रत्नमयी प्रतिमायें बनवायी थी। प्रतिष्ठा तथा
लोग इसनी दुखी क्यो हो। उन दोनो को जन्मान्तर तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के पश्चात् वह उन प्रति
सम्बन्धी अपना समाचार स्मरण होने के ही सर्ग पर्याय से
सम्बन्ध रखने वाला अवधिज्ञान की प्रकट हो गया। इस मायो की महापूजा करती थी। फाल्गुन महीने की अष्टा
प्रकार पूर्व भावनियो का वर्णन करते हुए वे सुख मे ह्निका में उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्र देव की पूजा की
समय बिताने लगे। एक बार एक देव ने आकर जयकुमार फिर वह वषागी पूजा के शेषाक्षत देने के लिए सिंहासन
के शील की परीक्षा की। पीछे जयकुमार ने संसार से पर बैठे हुए गजा अकम्पन के पास गयी। राजा पूर्ण
विरक्त हो भगवान ऋषभदेव के पास दीक्षा ले ली। यौवन को प्राप्त हुई उस विकारशन्य कन्या को देखकर
कवि परिचय : उसकी विवाहोत्सव की चिन्ता करने लगा। तत्पश्चात्
अपघ्र श सलोयनाचरिउ के कर्ता श्री देवसेनगणि ने राजा ने अपने चारो मत्रिो श्रृतार्थ, सिद्धार्थ, सर्वार्थ
ग्रन्य के प्रारम्भ मे जो प्रशस्ति दी है उससे ज्ञात होता तथा सुमति) के साथ विचार विमर्श किया। सब मत्रियो
हैं कि वे निबडिदेव के प्रशिष्य और विमलसेन गणधर के ने विभिन्न मत रखे। अंत मे सुमति नामक मत्री की बात
शिष्य थे। उन्होने इस ग्रथ की रचना राजा मम्मल की सबने स्वीकार की। उसके अनुसार स्वयवर विधि स
नगरी (मम्मलपुरी) मे रहते हुए की थी। विवाह होना चाहिए।
देवसेनगणि ने इस ग्रन्थ की रचना राक्षस सवत्मर के काशिराज अकम्पन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुद्धवार के दिन की थी। ये जयकमार पाये। अनेको सुन्दर राजकुमारो यहा तक राक्षस सवत्सर या विक्रम सबत क्या माना जाय इस पर चक्रवर्ती भरत के पूत्र अर्ककीति के रहने पर भी, विद्वानो मे मतभेद है। प० परमानन्द जैन शास्त्री ने
ना ने वरमाला जयमार के गले में डाल दी। राक्षस संव-तर को विक्रम संवत ११३२ (१०७५ ईस्वी वर समाप्त होते ही भरत के पुत्र अर्क कीति व जय- २६ जुलाई) माना है। उनका कहना है कि दूसरा राक्षस कमार के बीच युद्ध हा और विजय जयकुमार को हुई। सवत्सर वि. स. १३७२ (१११५ ई १६, जुलाई) माना इस घटना की सूचना भरत चक्रवर्ती ने जयकुमार को ही जाता है । इन दोनो मे २४० वर्षों का अतर है। किन्तु
शाको विवाह के अनन्तर विदा लेकर जयकुमार देव मेनगणि का समय प्रथम राक्षम सत्सर अर्थात् विक्रम ती से मिलने अयोध्या जाते है और वहां में लोटकर सवत् ११५ . मानना उपयुक्त है"। इस सम्बन्ध मे अभी जो अपने पडाव की ओर आते हैं तो मार्ग में गंगा नदी पर्याप्त लहापोह की आवश्यकता है नयोकि कुछ विद्वान पार करते समय उनके हाथी को एक देवी ने मगर का देवसेनगणि को १५वी शताब्दो का मानते ।