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राजपूत कालिक मालवा का जैन-पुरातत्त्व
प्रो० तेजसिंह गौड़ एम. ए. वी. एड.
गुप्त माम्राज्य के पतन के उपगत मालवा मे भी पित की गई। गजनीतिक उतार चढाव चलता रहा । फिर जब परमार विदिशा जिले के ग्यारसपुर नामक स्थान पर जैन राजपूतों का प्राधिपत्य मालवा पर हुआ तो लगभग ३०० मदिगे के भग्नावशेष मिले है । मालवा मे जैन मदिरो के वर्षों नव मालवा मे इनका ही शासन रहा । मालवा में जितने भग्नावशेषो का पता अभी तक चना है, उनमें जैनधर्म की उन्नति के लिये यह समय बहुत ही हितकारी प्राचीनतम अवशेष यही पर उपलब्ध हुए है। इस मदिर रहा । इस युग में कई जैन मदिरों का निर्माण हुआ। का मडप विद्यमान है और विन्याम एव स्तम्भो की रचना इम युग के प्रारम्भिक काल में जैन मन्दिर थे। जिसका शैली व राहा के समान है। फर्गमनने इनका निर्माण काल वर्णन डा० हीरालाल जैन इस प्रकार देते है । जैन हरिवश- १०वी शताब्दी के पूर्व निर्धारित किया है । यही पर एक पूराण की प्रशस्ति मे इसके कर्ता जिनसेनाचार्य ने स्पष्ट और मदिर के अवशेष मिल थे, किन्तु जब उस मंदिर का उल्लेख किया है कि शक सवन (७०५६० मन् ७८३) में जीर्णोद्धार हुआ तो उसने अपनी मौलिकता ही खो दी। उन्होंने वर्धमानपुर के पूर्वालय (पाश्वनाथ के मदिर) फर्गमन' के मतानमार ग्यारसपुर के आसपास के समस्त की अन्न राजवसति में बैठकर हरिवशपुराण की रचना की प्रदेश में इनके भग्नावशेष विद्यमान है कि यदि उनका और उसका जो भाग शेप रहा उसे वही के शातिनाथ विधिवत मकलन व अध्ययन किया जाय तो भारतीय वास्तु मदिर में बैठकर पूरा किया। उस समय उत्तर में इन्द्रा- कला और विशेषत जैनवास्तुकला के इतिहास के बड़े दीर्घ युद्ध दक्षिण में कृष्ण के पुत्र श्रीवल्लभ व पश्चिम में वत्स- रिक्त स्थान की पूर्ति की जा सकती है। राज तथा सौरमडल में वीर वराह नामक राजाम्रो का खजुराहो शैली के कुछ मदिर ऊन नामक स्थान पर राज्य था। यह वर्धमानपुर सौराष्ट्र का वर्तमान बढमान प्राप्त हुआ है । यह स्थान खरगोन नगर के पश्चिम में स्थित माना जाता है। किन्तु मैने अपने लेख में सिद्ध किया है है। ऊन के दो तीन अवशेष एक मुसलमान ठेकेदार द्वारा कि हरिवश पुराण मे उल्लिखित वर्धमानपुर मध्य प्रदेश ध्वस्त कर दिये गए थे तथा इनके पत्थर आदि का उपयोग के धार जिले में बदनावर है जिससे १० मील दूरी पर
सडक निर्माण के कार्य में कर लिया। उत्तरी भारत मे स्थित वर्तमान दूतरिया नामक गाँव है, प्राचीन दोस्तरिका
खजगहों को छोडकर इतनी अच्छी स्थिति में ऐसे मंदिर होना चाहिये, जहाँ की प्रजा ने जिनसेन के उल्लेखानुसार
मिलने वाला और कोई दूसरा स्थान नही है । ऊन के
मदिगे की दीवारो पर की कारीगरी खजुराहो से कुछ कम उस शातिनाथ मदिर मे विशेष पूजा अर्चा का उत्सव किया
है किन्तु शेष सब बातो मे सरलता से ऊन के मदिरो की था। इस प्रकार वर्धमानपुर में आठवी शती मे पार्श्वनाथ
नुलना खजुराहो से की जा सकती है । खजुराहो के समान और शातिनाथ के दो जैनमदिरो का होना सिद्ध होता है।
ही ऊन के मदिरो को भी दो प्रमुख भागो मे विभाजित शातिनाथ मदिर ४०० वर्ष तक विद्यमान रहा। इसका प्रमाण हमे बदनावर से प्राप्त अच्छुप्तादेवी की मूर्ति पर १. भारतीय संस्कृति मे जैनधर्म का योगदान पृष्ठ ३३२-३३ के लेख में पाया जाता है, क्योकि उसमे कहा गया है History of Indian and Eastern Archtकि सवत १२२६ (ई०११७२) की बैशाख कृष्ण पचमी tecture Vol. II PP. 55 को वह मूर्ति वर्षमानपुर के शांतिनाथ चैत्यालय में स्था- ३ वही पृ. ५५