Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 281
________________ स्वर्गीय पं० जुगलकिशोर जी डॉ० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट अनुवादक : श्री रामकुमार जैन एम. ए. पण्डित जुलकिशोर जी मुख्तार २२ दिसम्बर १९६८ किया । निश्चय ही वार्तालाप ने उस सहयोग का शिलाको १२ वर्ष की पूर्ण परिपक्व अवस्था में एटा नगर में न्यास कर दिया, जो प्रेमी जी जैनधर्म के अध्ययन एवं दिवंगत हो गये । इस शोकपूर्ण घटना से मुझे वह दिवस तत्सम्बन्धी अनुसन्धान मे मुझसे प्राशा रखते थे। स्मत हो गया, जब मैं बी. ए. परीक्षा का प्रमाण-पत्र प्राप्त पडित जुगलकिशोर जी से इस प्रथम साक्षात्कार के करने के लिए बम्बई विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह के पश्चात् प्रतिमास पत्र व्यवहार द्वारा मेरा उनका संपर्क में सम्मिलित होने गया था और मैंने २८ अगस्त को श्री बढ़ता ही गया। प्रेमी जी के प्राग्रह से मैंने एक कन्नड़ नाथराम जी प्रेमी के निवासस्थान पर प्रथम बार पंडित भाषा के कवि का जीवनचरित्र का मराठी में अनुवाद जी के दर्शन किये थे। इससे बहुत पहले सन् १९२० मे किया, जिसे प्रेमी जी ने स्वयं हिन्दी में अनूदित किया, जो ही, जैन ग्रन्थकारों एवं साहित्यकारों के विषय में लिखे गये, "अनेकान्त" के प्रथम, द्वितीय एवं अन्य अंकों में क्रमशः 'जन हितैषी" मे प्रकाशित एव श्री ए. बी. लठे द्वारा प्रकाशित हपा । "अनेकान्त" उस समय करोलबाग, दिल्ली बेलगाम के पुस्तकालय की फाइलों में सुरक्षित, उनके से प्रकाशित होता था। खोजपूर्ण लेख मैं पढ़ चुका था। उनकी विद्वत्ता का तभी मार्च, सन् १९३० मे मुझे लोक सेवा प्रायोग के से मेरे हृदय पर प्रभाव पड़ चुका था। स्वर्गीय श्री नाथू- समक्ष साक्षात्कार के निमित दिल्ली जाना पड़ा । प्रेमी जी राम जी प्रेमी भी मेरे बड़े आदरास्पद थे। उनके सुपुत्र के परामर्शानुसार मै उस समय समन्तभद्राश्रम करोलबाग ने हीराबाग मे मुझसे कहा कि प० जुगलकिशोर जी हमारे मे तीन दिन पडित जी के सानिध्य मे रहा । वहाँ श्री घर (मलुन्द-बम्बई) मे ठहरे हुए है-यदि आप चाहें तो अयोध्याप्रसाद गोयलीय से भी मेरा सम्पर्क स्थापित हपा, इस अवसर पर मेरे पिता जी के और पडित जी के एक जो भविष्य मे घनिष्ठ मंत्री के रूप में परिवर्तित एवं परि. साथ ही दर्शन कर सकते हैं। यह प्रथम अवसर था, जब वद्धित हो गया। इसके कुछ काल पश्चात् पंडित जुगलमै दोनों विद्वानों के एक साथ प्रत्यक्ष दर्शन कर किशोर जी अपना कार्य स्थल परिवर्तित कर सरसावा सका था। उन दिनो मैं हिन्दी समझ लेता था, परन्तु चले गये। किन्तु हमारा सम्पर्क तो अधिक घनिष्ठ ही बोल नही सकता था। परिणामतः श्री पडित जी के साथ होता गया। हम दोनों में विविध अनुसन्धान प्रसंगों को मेरा तत्कालीन वार्तालाप कुछ विचित्र-सा ही रहा। प० लेकर पत्र-व्यवहार चलता ही रहा । स्व. श्री राव जी जी साधारण अग्रेजी समझ लेते थे, परन्तु इतने मात्र से सरवाराम दोशी की कृतज्ञता को विस्मृत नहीं कर सकता वार्तालाप का निर्वाह होना कठिन था। अग्रेजी के स्थान एवं भूरिशः साधुवाद उन्हें अर्पित है कि उनके सहयोग पर मैंने मराठी मे बोलना प्रारम्भ किया। श्री प्रेमी जी से मैंने शोलापुर एक सप्ताह पर्यन्त ठहरकर घवला, जयधमराठी का हिन्दी अनुवाद करके मेरे भाव पडित जी को वला टीकामों का अध्ययन कर उपादेय सामग्री ग्रहण की। अवगत करा रहे थे । हम उस दिन शाम को लगभग तीन पंडित जुगलकिशोर जी उस सामग्री को देखना चाहते थे । घण्टे वार्तालाप में सलग्न रहे। हमने इस प्रदेश मे जैन मैंने वह सामग्री भेज दी। पंडित जी ने भी पर्याप्त समय धर्म की पुरातन अवस्थिति, कुमार की कालानुक्रमतिथि आरा के जैन शास्त्र भण्डार में इन टीकामों का अध्ययन तथा योगीन्द्र की कृतियों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर कुछ सामग्री एकत्रित की थी, दोनों सामग्रियों का

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