Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 298
________________ इतिहास के एक अध्याय का लोप प्रो० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' एम. ए., शास्त्री दि. २२ दिसम्बर ६८ रविवार को भारतीय वाङ्- (चार भाग), (४) युगवीर निबन्धावली (दो खन्ड), मय और इतिहास के उस प्रदीप्त रत्न की जीवन ज्योति (५) युगवीर भारती, (६) स्वयम्भूस्तोत्र (७) समीचीन सदैव के लिए शान्त हो गई, जिसकी प्राभा समाज, धर्म, धर्मशास्त्र, (८) अध्यात्म रहस्य, (६) युक्त्यनुशासन, साहित्य, दर्शन और राष्ट्र का दिग्-दिगन्त मुखरित था। (१०) प्राप्तमीमांसा, (११) तत्त्वानुशासन, (१२) योगइसमें सरस्वती और लक्ष्मी का अद्भुत समन्वय था। सार प्राभूत, (पुरातन जैन वाक्य-सूची, (१४) जैन प्रथ इसके निधन से सभी का दुःखी होना स्वाभाविक है। प्रशस्ति संग्रह (प्रथम भाग) (१५) कल्याण कल्पद्रुमादि । मगसिर सुदा ११ का दिन पं० जुगकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' को निस्पृह धन्य है जब सहारनपुर जिले के सरसावा नगर में स्व. मित निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता, कुशल कवि, चौ० नत्थमल जी (जन्म १ मई १८४६ और मृत्यु २० निपण अनवादक, समर्थ समीक्षक, विचारवान् लेखक और नववर १९१६) और श्रीमती भोई देवी का गृह उस बालक सफल सम्पादक के रूप में सदैव याद किया जाता रहगा। जुगलकिशोर के जन्म से जगमगा उठा था, जो आगे चल आपने अनेक वर्षों तक 'जैन गजट' "जैन हितैषी" कर "युगवीर" कहलाया। प्रारभिक शिक्षा उर्दू-फारसी माध्यम से ५ वर्ष की छोटी सी अवस्था में ही प्रारभ हो और "अनेकान्त" का सम्पादन बड़ी लगन और योग्यतागई। ये बहुत कुशाग्रबुद्धि , लगनशील और परिश्रमी पूर्वक किया। सम्पादक के दायित्त्व का निर्वहण निर्भीकता छात्र थे। इनके साथी और गुरुजन-सभी इनकी प्रतिभा के साथ किया। मितव्ययिता और सादगी के साथ उदासे प्रभावित थे । उस समय की प्रथा के अनुसार इनका रता की वे बेजोड नजीर थे । उनकी प्रतिभा और प्रध्यवविवाह १३-१४ वर्ष की अवस्था में ही हो गया था। साय से जैन साहित्य और इतिहास की अनेक उलझी विवाह के पश्चात् अापने जैनधर्म दर्शन के अतिरिक्त हुई गुत्थियाँ सुलझ गई है। वे अपने प्रादर्श और हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषामो का अध्ययन योजनाएँ 'अनेकान्त' तथा समन्तभद्र पाश्रम' (वीर सेवा बडी रुचि के साथ योग्यतापूर्वक किया। धार्मिक, सामा मन्दिर) के रूप मे फलीभन देखना चाहते थे । इन दोनो के विकास उत्कर्ष के लिए जैसी प्रातुरता मुख्तार जी जिक, साहित्यिक, प्राध्यत्मिक और राष्ट्रीय गतिविधियो , मे पारम्भ से ही आपको गहरी दिलचस्पी रही और वह में थी वैसी अन्यत्र प्राय. नही दिखाई पड़ती। क्रमशः पल्लवित, पुष्पित और फलीभूत हुई। वे जीवन भर साधक और चिन्तक रहे। शोध-खोज धुन के पक्के, लगन और सुझवझ के धनी, विचारो और समीक्षा प्रापके जीवन का अभिन्न अग था। भट्टारको मे क्रान्ति छिपाये, कर्मठ बालक जुगलकिशोर के साहित्यिक की अनगल प्रवृत्तियाँ प्रापके अथक परिश्रम के परिणामजीवन का श्रीगणेश-पाठ मई १८१६ के " जैनगजट" स्वरूप ही 'ग्रन्थ परीक्षा' ( भाग) के माध्यम से सर्व. में प्रकाशित एक निबंध से होता है। तब से उनकी लेखनी विदित हो सकी है। उनके जीवन के अन्तिम क्षण तक अथक और अविरल प्राज के अनुसन्धान जगत मे जैन दर्शन और साहित्य गति से निरन्तर प्रवहित रहकर अनेक निबधो, कवितामो, सम्बन्धी कोई भी गवेषणा और विवेचना मुख्तार श्री के सम्पादकीय टिप्पणियो अनूदित-प्रथो, इतिहास और विचारो की 'पुट' के विना प्राय: अधूरी मानी जाती है। समीक्षा का प्रणयन करती रही। उनकी लेखनी से प्रसूत प्राचार्य समन्तभद्र और उनकी भारती के सम्बन्ध मे कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रंथ निम्नाङ्कित है : मुख्तार श्री विशिष्ट ज्ञाता और अधिकारी विद्वान् के रूप (१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश मे समादृत हुए हैं। उन्होंने स्वामी समन्तभद्र की भारती (२) जैनाचार्यों का शासन भेद, (३) ग्रन्थ परीक्षा का बहुत सुन्दर सम्पादन और प्रकाशन कराया है। प्राचार्य

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