Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 290
________________ युग परिवर्तक पीढ़ी की अंतिम कड़ी थे युगवीर श्री नीरज जैन पहिली बार ईसरी मे पूज्य वर्णी श्री गणेशप्रसाद जी जाना अधिक उपयुक्त होगा। के पास मुख्तार सा० को देखा था। स्व. बाब छोटेलाल मुझे लगा कि हम लोगों के जन्म के पूर्व से प्रचलित जी से मुख्तार सा० के मतभेदों को लेकर बाबा जी के और सर्व स्वीकृत पाठ में परिवर्तन का सुझाव मुख्तार पास कुछ बाते पहुंची थीं और उन्ही की सफाई दोनो सा० को शायद रुचिकर न होगा; पर मुझे आश्चर्य हा पक्षों से प्रस्तुत की जा रही थी। मुझे अच्छी तरह याद कि उन्होंने इन सुझावों का न केवल स्वागत ही किया है कि मतभेदो की तेजी या कड़वाहट तब तक बहुत हल्की वरन् इन उपयुक्त सुझावों के लिये स्वरूपचन्द्र जी को पड चुकी थी और दोनों कर्मवीर महापुरुषों का पक्ष सम- धन्यवाद भी दिया। र्थन बहत सौजन्यता पूर्ण ही बाबा जी के समक्ष हो रहा इसके बाद भगवत् समन्तभद्राचार्य के इतिहास को था। इसके पूर्व 'मेरी भावना' के माध्यम से ही उन्हें लेकर उनसे पत्र-व्यवहार हुँप्रा जो लगभग उनके जीवन जानता था। कुछ लेख भी पढ रखे थे और उनके कर्मठ के अन्त तक किसी न किसी प्रकार चलता ही रहा। व्यक्तित्व की जो काल्पनिक तसवीर मैने बना रखी थी, वास्तव में हमारे गौरवमय इतिहास को देखने जानने उन्हें उसके अनुरूप ही पाया। कभी इतनी सहजता से के लिये मुख्तार सा० ने समाज के एक सजग नेत्र का उनका दर्शन हो जायगा और इतनी निकटता से उनसे काम किया। प्रसिद्ध शोधक विद्वान स्व. श्री नाथूराम मिल सकूगा ऐसी आशा उस समय तक मैने नही की थी। प्रेमी को दूसरा नेत्र मान लें तो जैन साहित्य के इतिहास दूसरी बार दिल्ली में उनके दर्शन का सौभाग्य का शोध वरने, उसे नई दृष्टि से परीक्षण के निकष पर मिला। श्री रतनलाल मालवीय उन दिनो के केन्द्रीय कसने और उसकी टूटी तथा बिखरी कड़ियों को एकत्र शासन मे उपमन्त्री थे। उनके यहाँ ही कुछ मित्रों से करके जोड़ने के अथक अध्यवसाय की कहानी बन जाती चर्चा मे ज्ञात हुआ कि श्री मुख्तार सा० आजकल दिल्ली है। निश्चय ही इस युग के साथ पुरातत्व के भूमिगत तथा मे ही है । शाम को हम लोग मिलने चले गए। जबलपुर विलुप्त प्राय अवशेषों तक अपनी तीक्ष्ण तथा सूक्ष्म दृष्टि मे सम्प्रति "जगवाणी" के सम्पादक श्री स्वरूपचन्द जैन पहुँचाने वाले स्व. बाबू छोटेलाल को तृतीय नेत्र की तरह मेरे साथ थे। स्थापित करना होगा। अनेक रूढ़ियों का उन्मूलन करने ____ मुख्तार सा० वीर सेवा मन्दिर के भवन में एक छोटे में. अनेक गल में, अनेक गलत मान्यतामों का खण्डन करने में और कमरे में बैठे हुए थे। सक्षिप्त से पूर्व परिचय के आधार हमारे गौरवशाली अतीत की अनेक गौरव-गाथानों पर उनसे थोड़ा वार्तालाप हुया उन्होने पहिचान भी लिया से हमे परिचित कराने में त्रिनेत्ररूपी इन विभूतियों का और बड़ी आस्था-भक्ति पूर्वक पूज्य वर्णी जी महाराज का जो महत्वपूर्ण योगदान रहा है उसका सही मूल्यांकन पाने स्मरण किया। वाली पीढी ही कर सकेगी। इसी समय मेरे साथी स्वरूपचन्द्र जी ने मेरी भावना श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' उस युग परिवर्तक में दो संशोधन करने का सुझाव मुख्तार सा० को दिया। पीढी की अन्तिम कड़ी थे। उन्होने अपने जीवन के अन्तिम उनका प्रस्ताव था कि क्षणों तक प्रथक रूपेण कार्य करके कर्मठता का श्रेष्ठ "पर धन वनिता पर न लुभाऊँ" के स्थान पर "पर उदाहरण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। उनकी सद्गति की घन पर तन परन लुभाऊँ" और "धर्म निष्ठ होकर राजा कामना के साथ उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलियां अर्पित भी" के स्थान पर "धर्म निष्ठ होकर शासक भी" पढ़ा करना हमारा कर्तव्य है।

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