Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 284
________________ स्वर्गीय पं० जुगलकिशोर जी २६१ अनुचित, उनसे क्षमाप्रार्थी होता हुआ मैं इस उत्तरदायित्व सम्बन्धों में कभी अन्तर नहीं पाया। में उनकी विद्वत्ता को ग्रहण न कर सका। मेरा विश्वास है कि ट्रस्टी का के प्रति प्रादर भाव रखता था और वे मुझे अपने परिवार पद प्रार्थिक-उत्तदायित्व का है और किसी सम्पन्न का एक वात्सल्यभाजन सदस्य मानते थे। व्यक्ति को ही इस पद पर आसीन होना चाहिए। मेरे जब मैं गत पचास वर्षों की ओर दृष्टिपात करता जैसे सीमित प्राय के व्यक्ति को प्रति क्षण अार्थिक प्रश्नों हूँ तो मै आश्चर्यान्वित होता है कि पण्डित जी ने जैन से सम्बन्धित सस्था का ट्रस्टी नहीं होना चाहिए । पडितजी साहित्य के क्षेत्र में कितना प्रशसनीय कार्य किया है ? मेरे इस स्पष्टीकरण से कभी सहमत नहीं हुये, अन्त में अनेक जैन ग्रन्थकारों-साहित्यिकों के कृति सम्बन्धी, वातालाप के मध्य यह प्रश्न उपस्थित न हो जाये, इसके तिथि सम्बन्धी कार्यों का उन्होने सुयोग्य रीत्या विश्लेषण प्रति वे सावधान रहते रहे। उनकी एक दूसरी भी इच्छा किया है। कभी-कभी उनकी पाद-टिप्पणिया मुझे रुचि थी कि मैं उनकी सभी रचनायो का अंग्रेजी मे अनुवाद कर प्रतीत न होती थी; परन्तु ऐसी टिप्पणिया लिखना कर दूं। वास्तव में मेरी भी ऐसी हादिक इच्छा थी, उनका स्वभाव बन गया था, जिससे वे जीवनभर विमुक्त परन्तु महाविद्यालय सम्बन्धी कर्तव्य तथा निजी अनुसन्धान न हो सके। जब तक "अनेकान्त" उनके सम्पादकत्व में कार्य की-व्यस्तता इस आकाक्षापूर्ति के लिये समय प्रकाशित होता रहा उन्होने जैन-इतिहास के अनेक अमूल्य प्रदान नही करती थी। मैं अपनी असमर्थता के प्रति खेद तथ्य मनीषियो के समक्ष उपस्थित किये। उन्होने अनेक व्यक्त करता था और वे भी मेरी कठिनाई से अवगत थे। विद्वानों को लिखने के लिये प्रोत्साहित किया। परन्तु सन् १९३२ मे "समन्तभद्र का समय एव डाक्टर पाठक" यत्रतत्र उनके प्रति यह अभियोग स्थापित रहा कि वे नामक उनके निबन्ध का मैने अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो उन्ही विद्वानों के प्रति अधिक उदार रहते थे जो उनकी भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट की वार्षिक षिक शतों को निभाते हो उनके सहयोग में कार्य कर सकते नों पत्रिका (अक १२) में प्रकाशित हुपा। तदनन्तर पण्डित थे। यदि वे अपने टस्ट की निधि को प्रकाशन कार्य में जी के प्राग्रह को मान देकर मैंने उनके 'सन्प्रति सूत्र" का लगा देते तो उनकी कृतिया ससार के समक्ष अपेक्षाकृत अग्रेजी रूपान्तर किया, जो एक पृथक् पुस्तकाकार में जल्दी पा सकती थी। प्रकाशित हुआ। छोटेलाल जी की हार्दिक इच्छा थी कि अपने अन्तिम वर्षों में अपनी कृतियो के प्रकाशनार्थ यह निबन्ध बड़े सुन्दर रूप में प्रकाशित हो। वे यदा कदा भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियो को लिखते "पुरातन जैन वाक्यसूची (सरसावा १६५०) समी- रहे । श्रीमान् माहू शान्धिसाद जी तथा श्रीमती रमा जी चीन धर्मशास्त्र (दिल्ली १९५७) तथा योगसार प्राभृत के प्रति बडा आदर भाव प्रदर्शित करते रहे है । पण्डित (१९६८) आदि का अंग्रेजी अनुवाद करने के लिये श्री जी के प्रकाशन-प्रस्तावो को उन्होने सर्वदा स्वीकार छोटेलाल जी और पण्डित जी दोनो ने ही मुझसे अनेक किया। उनके ग्रन्थो का प्रकाशन ज्ञानपीठ से न हो सका बार आग्रह किया था । अन्तिम वर्षों में पण्डित जी की तो इसका मात्र यही कारण रहा कि पुस्तकों की प्रेस स्मरण शक्ति कुछ अधिक साथ नहीं दे रही थी। "सन्मति कॉपी कभी भी समय पर प्राप्त न हो सकी। उनके एक सत्र" का अनवाद प्रकाशित होने पर उन्होंने कुछ वैमत्य ग्रन्थ "योगसार" का प्रकाशन मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला से सा व्यक्त किया, मेरे द्वारा विरोध होने पर प्रस्तावना के श्लाघनीय शीघ्रता से हुआ। मैंने इसकी प्रस्तावना लिखी उस अनुच्छेद पर चिट चिपका कर उन्होंने उसे सशोधित हम सबको इस बात का सन्तोप रहा कि इसको प्रकाशित कर दिया था। इसी तरह मैने उन्हे एक बार लिखा था प्रति पण्डित जी को मृत्यु से कुछ पूर्व हम दे सके थे । कि "काव्य कल्पद्रम" वादिराज कृत स्तोत्र नही माना जा यदि उनका स्वास्थ्य प्राज्ञा देता तो वे अवश्य मेरे द्वारा सकता। समय-समय पर अनुसन्धान सम्बन्धी तथ्यो पर लिखित प्रस्तावना को पढ़कर अपनी भावात्मक प्रतिहमारा मतवभिन्य हो जाता था परन्तु इससे हमारा स्नेह- क्रिया व्यक्त करते ।

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