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अनेकान्त
मागे नहीं बढ़ा। बलात् बढ़ाया गया तो उसने हल्ल- २. वज्जी एकमत से परिषद मे बैठते है, एकमत से विहल्ल को नीचे उतार दिया और स्वय अग्नि में प्रवेश उत्थान करते है, एक ही करणीय कर्म करते है । वे सन्निकर गया। मर कर अपने शत्रु अध्यवसायो के कारण पात भेरी के सुनते ही खाते हुए, प्राभूषण पहनते हुए या प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुआ । देवप्रदत्त हार देवतामो ने वस्त्र पहनते हुए भी ज्यो के त्यों एकत्रित हो जाते हैं । उठा लिया। हल्ल-विहल्ल को शासनदेवी ने भगवान
३. वज्जी अप्रज्ञप्त (अवैधानिक) को प्रज्ञात नही महावीर के पास पहुँचा दिया वहा वे निग्गठ-पर्याय में
करते। प्रज्ञप्त का उच्छेद नहीं करते । दीक्षित हो गये।
४. वज्जी महल्लको का (वृद्धों का) सत्कार करते राजा चेटक ने प्रच्छन्न स्थान मे आमरण अनशन
है, गुरुकार करते है। उन्हे मानते है, पूजते है । किया व अपने शत्रु अध्यवसायो से सद्गति प्राप्त की।
५. वज्जी कुल-स्त्रियो और कुल कुमारियों के साथ बौद्ध परम्परा-वज्जियों से शत्रता :
बलात् विवाह नहीं करते। गगा के एक पत्तन के पास पर्वत में रत्नो की खान
६. वज्जी अपने नगर के बाहर और भीतर के चैत्यो थी । अजातशत्रु और लिच्छवियो मे प्राधे-आधे रत्न बाट का अादर करते है। उनकी मर्यादापो का लघन नहीं लेने का समझौता था। अजातशत्रु-"अाज जाऊँ, कल करते। जाऊँ" करते ही रह जाता। लिच्छवी एक मत हो, सब ७. वज्जी अहतों की धार्मिक सुरक्षा रखते है, इसरत्न ले जाते । अजातशत्रु को खाली हाथो लौटना पड़ता। लिा कि भविष्य में उनके यहाँ अर्हत आते रहे और जो अनेको बार ऐसा हुआ । अजातशत्रु क्रुद्ध हो सोचने लगा ।
। है, वे सुख से विहार करते रहे। - "गण के साथ युद्ध कठिन है, उनका एक भी प्रहार
जब तक ये सात अपरिहानीय-नियम उनमे चलते निष्फल नही जाता', पर कुछ भी हो, मैं महद्धिक वज्जियो
रहेगे, तब तक उनकी अभिवृद्धि ही है, अभिहानि नहीं। को उच्छिन्न करूंगा, उनका विनाश करूंगा।" अपने
वज्जियों में भेद :महामत्री वस्सकार ब्राह्मण को बुलाया और कहा
वस्सकार पुन, अजातशत्रु के पास आया और बोला"जहाँ भगवान् बुद्ध है, वहाँ जामो मेरी यह भावना उनसे
__"बुद्ध के कथनानुसार तो वज्जी अजेय है, पर उपलापन कहो । जो उनका प्रत्युत्तर हो, मुझे बतायो।"
(रिश्वत) और भेद से उन्हे जीता जा सकता है।" उस समय भगवान् बुद्ध राजगृह मे गृध्रकूट पर्वत पर
राजा ने पूछा-"भेद कैसे डाले?" विहार करते थे । वस्सकार वहाँ पाया। अजातशत्रु की वस्सकार ने कहा-"कल ही राजसभा में प्राप ओर से सुख-प्रश्न पूछा और उसके मन की बात कही। ताजियों की चर्चा करे। मै उनके पक्ष में कुछ बोलगा।
क सात अपरिहानीय नियम पाप मेरा तिरस्कार करे । कल ही मै वज्जियों के लिए बतलाये
एक भेंट भेज़गा। उस दोषारोपण में मेरा शर मुडवा कर १. सन्निपात-बहुल है अर्थात् उनके अधिवेशन मे
मुझे नगर से निकाल देना। मै कहता जाऊँगा-"मैंने पूर्ण उपस्थिति रहती है।
तेरे प्राकार, परिखा आदि बनवाये है। मैं दुर्बल स्थानो १. भरतेश्वर बाहुबलीवृत्ति, पत्र १००-१०१
को जानता हूँ। शीघ्र ही मै तुम्हे सीधा न कर दूं, तो २. बुद्ध चर्या के अनुसार पर्वत के पास बहुमूल्य सुगन्ध
___ मेरा नाम वस्सकार नहीं है।" वाला माल उतरता था। पृ. ४८४ ।
अगले दिन यही सब घटित हुआ। बात वज्जिनों तक ३. दीघनिकाय अट्ठकथा, सुमंगलविलासिनी, खण्ड २, पृ.
भी पहुंच गई। कुछ लोगों ने कहा-"यह ठगी है। इसे
भा पहु ५२६; विमलचरण ला, बुद्धघोष, १११; हिन्दू
गंगा पार मत प्राने दो।" पर अधिक लोगो ने कहा
गगा पार मत । सभ्यता, पृ. १८७ ।
"यह घटना बहुत ही अपने पक्ष मे घटित हुई है। वस्स४. दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्त, २:३(१६) १. वही।