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अनेकान्त
पड़ते है। वैसे भी हिन्दी के प्रति विरोध से संस्कृत के प्रति मानों द्वारा भारत मे तो संस्कृत विद्या का प्रचार किसी विरोध स्वयमेव हो जाता है क्योकि भाषा विज्ञान, शब्दा- मात्रा मे हो भी रहा है। पर विदेशों में किसी भी मात्रा वली, व्याकरण और सामान्य लक्षणों की दृष्टि से सस्कृत मे नही । गीता, पञ्चतन्त्र प्रौर शकुन्तला मादि की भांति हिन्दी का प्राण है। हिन्दी के प्रति विरोध मे सस्कृत का और भी सैकड़ों ग्रन्थ, विदेशी भाषाओं में अनूदित होने और सस्कृत के प्रति विरोध में हिन्दी का जीवन स्थिर योग्य है । संस्कृत साहित्य का इतिहास जर्मन और अंग्रेजी नही रह सकता। हिन्दी की उन्नति के लिए सस्कृत की भाषाप्रो के अतिरिक्त किसी विदेशी भाषा में नहीं लिखा और सस्कृत की उन्नति के लिए हिन्दी की उन्नति अनि- गया है । समालोचना पौर कोष-ग्रन्थ केवल अग्रेजी में ही वार्य है।
सुलभ है। संस्कृत के विद्वानों, ग्रन्थों और पत्र-पत्रिकाओं
की विदेशो में प्रचारार्थ भेजने की व्यवस्था भी अभी क्षेत्रीय भाषाओं के योगदान का प्रभाव :
नगण्य है। क्षेत्रीय भाषाग्रो से सस्कृत के प्रचार और प्रसार में योगदान प्राप्त नहीं होता। सस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद शासकीय सहयोग को अपर्याप्तता : क्षेत्रीय भाषामो मे नही के बराबर हुआ है। इन भाषाओं
केन्द्रीय और राज्य शासनों का ध्यान सस्कृतकी ओर मे ऐसे भी ग्रन्थ नहीं लिखे गये है जिनमे संस्कृत ग्रन्थो की
गया है। परन्तु संस्कृत की पाठशालाप्रो और विद्यालयो ममालोचना, व्याख्या और विश्लेषण ग्रादि हो। सस्कृत
को या तो मान्यता ही न देना या प्राथमिक शालाप्रो के और क्षेत्रीय भाषाप्रो के शब्दकोष जैसे सस्कृत-बगाली,
समकक्ष ही मानना, उन्हे पर्याप्त और सविशेष अनुदान न सस्कृत-गुजराती और सस्कृत-मराटी आदि भी कदाचित्
देना, सस्कृत संस्थाओं का स्वतः अत्यल्प मात्रा मे सचालन ही बने होगे। क्षेत्रीय भाषामो के माध्यम से सस्कृत के
करना, सस्कृत और संस्कृतज्ञों के हितों का सर्वोपरि ध्यान अध्यापन की व्यवस्था भी आवश्यक है।
न रखना प्रादि अनेक ऐसी कमियाँ है जिनके कारण शासन पत्र-पत्रिकाओं के सहयोग की कमी:
का सहयोग पर्याप्त नही कहा जा सकता। कुछ पत्र-पत्रिकाएँ सस्कृत भाषा मे भी प्रकाशित होती Rana
शिक्षा का अर्थप्रधान उद्देश्य : है । इनसे सस्कृत के प्रति रुचि का वर्धन होना स्वाभाविक है पर वह पर्याप्त नही। सस्कृतेतर पत्र-पत्रिकायो से, सस्कृत का उद्देश्य 'स्वान्ता सुखाय' है, जबकि आज उनकी अपनी समस्याग्रो को दृष्टिगत रखते हुए जो प्रोत्सा- का शिक्षा का उद्दश्य प्रधानतः प्रथापाजन हा गया है। हन सस्कृत को मिलना चाहिए वह नही मिल रहा है। एक का उद्देश्य आध्यात्मिक है और दूसरी का भोतिक । हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ तो सस्कृत को यदा-कदा छ भी यह भी एक कारण है जिससे जन-साधारणकी रुचि संस्कृत लेती है, पर अग्रेजी और अन्य भाषाओ की पत्रिकाएँ यह ।
विद्या के प्रति उत्पन्न नही होने पाती। भी नही करती। लेखको, कवियो, समालोचको इतिहासज्ञो
उपसंहार : और पुरातत्त्वज्ञो आदि की कलमे तो सस्कृत का पुनीत
सस्कृत विद्या के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यह स्पर्श ही नही कर पाती, सम्पादकीय लेख भी कालिदास
अरुचि गम्भीर चिन्ता का विषय है। यह केवल एक भाषा जयन्ती आदि जैसे महत्त्वपूर्ण अवसरो पर भी नही देखे
या विद्या का ही नही प्रत्युत भारतीय संस्कृति के जीवनगये है।
मरण का प्रश्न है। अतएव देश, समाज, सस्कृति और विदेशों में प्रचार का प्रभाव :
साहित्य के कर्णधारों का ध्यान इस ओर अविलम्ब आना शासन, विभिन्न संस्थानों और कुछ विद्या-प्रेमी श्री- चाहिए।