Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 262
________________ सरस्वती-पुत्र मुख्तार सा० मिलापचन्द रतनलाल कटारिया वीरसेवा मदिर और "अनेकान्त" के जन्मदाता एव वयं गोपालदास जी वरैया तक ने उनकी लेखनी का लोहा "मेरी भावना" के अमर रचयिता परमादरणीय प. वयं माना था। मुख्तार सा. के परीक्षा लेखों से प्रभावित जुगुल किशोरजी मुख्तार "युगवीर" का ६२ वर्षकी आयु मे होकर वरैया जी ने आपत्तिजनक ग्रन्थों को पाठ्यक्रमों में से एटा में स्वर्गवास होने के समाचार ज्ञात कर अत्यन्त हार्दिक निकाल दिया था इस तरह मुख्तार सा० को लेखनी का दुखः हुमा । पापका हमारे ार अतीव स्नेह था। पापकी जादू सर्वत्र व्याप्त था। याद कर दिल भर पाता है पापके बीसों विस्तृत साहित्यिक २४ अप्रेल सन् १९४२ मे मुख्तार सा० ने अपनी ५१ पत्र हमारे पास सुरक्षित है उनसे पाठक मुख्तार सा० की हजार की मिल्कियत का एक वसीयतनामा वीरसेवा मदिर श्रुत सेवा की अद्भुत लगन को हदयगम कर सकते है। आप ट्रस्ट योजना के साथ सहारनपुर में रजिस्टर्ड करवाया था सन् १९५५ में केकडी पधारे थे तब ग्रापको १७ दिसबर जो अनेकान्त वर्ष ५ पृष्ठ २७ से ३० पर सक्षिप्त रूप से को अभिनन्दन-पत्र के साथ १०५ रुपयों की थैली स्थानीय छपा है। इसी को अपने जीवन काल में ही पब्लिक ट्रस्ट दि० जैन समाज ने भेंट की थी और यहाँ की प्राचीन व का रूप देते हुए २६ अप्रेल १६५१ को एक ट्रस्ट नामा का रूप दत हुए २६ । विशाल दि. जैन सस्था का पापको अधिष्ठाता मनोनीत नकुड मे रजिस्टर्ड कराके आपने सब सम्पत्ति ट्रस्टियो के किया था। मुपुर्द कर दी थी । यह ट्रस्टनामा अविकल रूप से अनेकात आपके स्वर्गवास से साहित्याकाश का एक जाज्वल्य वर्ष ११ पृष्ठ ६५ से ७३ पर छपा है। इससे जाना जा मान महान् नक्षत्र अस्त हो गया। तन धन मन सर्वस्व सकता है कि-मुख्तार सा० मुख्तार गिरि की कला मे भी कितने कुशल थे। इस ट्रस्टनामे का ड्राफ्ट इतना समर्पण कर जीवन भर जनवाङ्मय के लिये अलख जगाने सुन्दर बना है कि अनेक सस्थाप्रो के सचालको ने वाला अब उन जैसा परम साहित्य तपस्वी होना महान अपनी संस्थानों का ट्रस्ट कराते वक्त इसको प्रादर्श रूप दुर्लभ है। से ग्रहण किया है। हमारे पास से भी एक रामद्वारा विद्वान और ज्ञानी अनेक देखे पर उनकी प्रज्ञा ही के व्यवस्थापक और १-२ अन्य सज्जन इस ट्रस्टनामे की निराली थी। उनकी दृष्टि बड़ी पैनी, बुद्धि बड़ी प्राजल "अनेकान्त" की कॉपी मागकर लेगये थे इससे इसकी पौर प्रतिभा बड़ी अद्भुत थी। उनका लेखन प्रामाणिक महत्ता प्राकी जा सकती है। और प्रमेय बहुल होने के साथ ही रोचक एव अनुसघा- मुख्तार श्री ने अनेक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का मुलानुनात्मक होता था। साधारण सूत्रों का जो रहस्य व गामी सन्दर हिन्दी अनुवाद और भाष्य किया है। उनके उद्घाटित करते थे वह असाधारण होता था। उनके अनुवाद की भी अपनी एक निराली शैली है-अनेक निष्कर्ष अनेक नई दिशामों और अटल स्थापनाओं जगह अनुवाद वाक्य को और विशद करने के लिए उसी को लिये हुए होते थे। उनकी लेखनी वास्तव में ही के प्रागे स्पष्टतर वाक्यों का सयोजन किया गया है फिर चमत्कार पूर्ण थी-उससे अनेकों में स्वाध्याय और निबध- भी कोई प्रवाह भंग नहीं हो पाया है यह एक खूबी है। लेखन की रुचि जाग्रत हुई थी हमने स्वयं-उससे काफी अनुवाद के साथ प्रत्येक ग्रन्थ की विस्तृत प्रस्तावना और प्रेरणा प्राप्त की थी। इस तरह मुख्तार सा० सहस्त्रों परिशिष्टादि से भी समलकृत किया गया है शुद्ध एव विद्वानों के परोक्ष रूप से प्रादर्श गुरु थे। गुरूणागुरू पं० कलात्मक छपाई का भी पूरा ध्यान रखा गया है। इस

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