Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 274
________________ समीचीन धर्मशास्त्र २५१ प्राचार्यत्व बिद की व्यापको हमारे स्वर्गीय बा. जी बहुमुखी विलक्षण प्रतिभा के कारों में उस महान् प्राचार्य परम्परा की कड़ी थे यद्यपि धनी थे। उनमें दार्शनिक चिन्तनशीलता, कवि की भावु. वे गृहस्थ थे पर उनकी गृहस्थी जिनवाणी की सेवा के ही कता, प्राचार्यत्व की गरिमा और गम्भीरता, समीक्षक की गहरे मोह से व्याप्त थी। भेदक दृष्टि, पुरातत्व विद् की व्यापक पारदर्शिता, सम्पा- यद्यपि माज वह महामानव सांसारिक सत्य को साथ दक की काट-छांट सब कुछ थी। और थी इन सबके ऊपर कर अपनी देह के पार्थिव परमाणुषों को विखरा चुका है। विराट् मानवता पौर परोपकारार्थ अपने को तिल-तिल पर उसकी साहित्य सेवा और महान् प्रात्मीय सन्देश हमारे जलाने की महान उदारता । उन्होंने अपने महान् व्यक्तित्व लिये प्रेरणादायक हैं। यहाँ मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित को एक संस्था में परिवर्तित कर दिया था। वे जैन ग्रन्थ- करता हूँ। इन सब समीचीन धर्मशास्त्र चम्पालाल सिंघई, 'पुरन्दर', एम. ए. शोध स्नातक स्वतन्त्र भारत ने सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ के मुख्तार सा० ने समीचीन धर्मशास्त्र की प्रस्तावना में श्री शीर्षस्थ सिंहों को राज्य चिन्ह के रूप में अपनाकर सम्राट् समन्तभद्र की दो अन्य गर्वोक्तियाँ भी अंकित की है जिनका अशोक द्वारा धर्मविजय को युद्धविजय से श्रेष्ठ प्रदर्शित अधिक प्रचार नहीं हो सका हैकरने वाली नीति का महत्व प्रतिपादित किया है। इस "कांच्या नग्नाटकोऽहं, मलमलिनतनुलविशे पांडुपिंडः, देश में दिग्विजयी सम्राटो के स्वर्ण-मुकुट धर्मविजयी सतो पुण्ड्रोड्रे शाकभक्षी, दशपुरनगरे मिष्टभोजीपरिवाट । के चरणों मे झुकते रहे है लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व ऐसी वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः, पांडुरागस्तपस्वी, धर्मविजय फणिमण्डलातर्गत उरगपुर (पांड्य प्रदेश की राजन् यस्याऽस्तिशक्तिः, स वदति पुरतो जैननिग्रंथवादी।" राजधानी) के सन्यस्त राजपुत्र ने की थी। करहाटक की काची के इस नग्नाटक (दिगम्बर साधु) को प्राप्तराजसभा मे उसने निम्नाकित श्लोक के रूप में प्रात्मपरि मीमांसा की ताड़पत्रीय प्रति में राजकुमार प्रकट किया चयादि दिया था जो श्रवण बेल्गोल के शिलालेख मे गयाउत्कीर्ण है। (शिला लेख क्र० ५४)। 'इतिश्री फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिप सूनोः "पूर्व पाटलिपुत्रमध्य नगरे भेरी मया ताडिता, श्री स्वामी समन्तभद्र मुनेः कृतो प्राप्तमीमांसायाम् ।' पश्चान्मालव-सिंधु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैविशे । उन्हें धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र और साहित्यशास्त्र के प्राप्तोऽपि हं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं सकट, साथ ज्योतिषशास्त्र, प्रायुर्वेद, मन्त्र, तन्त्रादि विषयों में बावार्थो विचराम्यह नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥" भी निपुणता प्राप्त थी, जैसा कि निम्नाकित प्रात्म-परिचय इस गर्वोक्ति से प्रकट होता है कि न केवल दक्षिण से प्रकट है :भारत की कांची नगरी के वार्थियो को स्वामी समन्त- प्राचार्योह, कविरहमहं, वादिराट्, पंडितोहं, भद्र ने पराजित किया था, अपितु उत्तर भारत स्थित दैवज्ञोह, भिषगहमहं, मान्त्रिकस्तांत्रिकोहं । पाटलिपुत्र (पटना), मालवा, सिन्धु, ठक्क (पजाब का एक राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायाम, भाग), विदिशा (माजकल मध्यप्रदेश में है) आदि में भी प्राजासिद्धः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोहम् ॥" विजयपताका फहराई थी। उक्त श्लोक तो विख्यात है, उक्त पद्य में प्राचार्य प्रवर के १० विशेषणों का

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