Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 267
________________ २४४ अनेकान्त कहता हूँ कि तुम मेरे साथ लगे रहो तो देखो मैं कितना रखते थे और जहाँ तक हो सकता था उनकी कलुषता कार्य कर सकता हूँ। कृपणता के कारण कहने पर भी दूर कर देते थे और फिर उनसे मिल जाते थे। अभी कुछ कभी कोई सेवक व विद्वान को अपने पास वेतन पर नही लेख व पुस्तकें उनकी अधूरी व अप्रकाशित रह गई है जो रखा । - मैं तो ग्रहस्थ में रहते हुए उन्हे सेवा में दो-चार उन्होंने इधर लिखी थी उन्हे पूर्ण करना है तभी उनकी • घन्टे ही दिन भर मे दे पाता था। वह भी रात्रि के समय आत्मा को शान्ति मिलेगी। जैसे-जैसे मुझे समय मिलता ८ से ११ बजे तक । इस प्रकार उनका जीवन इधर चलता जायगा और आप सब जनो का सहयोग मुझे मिलता रहा और मैं व मेरी स्त्री, पुत्र व पुत्रवधू व बच्चे सभी रहेगा तो उनका यह अधूरा कार्य भी अवश्य पूरा हो उनका आदर सत्कार तथा सेवा में दिन-रात लगे रहते थे। जावेगा। क्या करूँ अशुभ कर्म के वश उनके निधन के मौर जब कभी कोई लेख या शास्त्र आदि लिख कर वाद मैं भी बीमार पड़ गया और अभी तक बीमार ही तैयार कर लेते थे तो मुझसे ही उसकी प्रेस कापी करवाते चल रहा हूँ करीब अभी डेढ या दो माह लगेगे तब पूर्ण थे, वैसे तो मुझे कोई असुविधा नही होती थी; परन्तु समय स्वस्थ होऊँगल, ऐसा डाक्टरों का कहना है। ठीक होकर की कमी और सस्कृत भाषा से मुझे बिलकुल अनभिज्ञता है ही उनके अधूरे कार्यों की पूर्ति कर सकूगा अभी तो उनका इसलिए नकल करने मे मुझे अधिक समय व कठिनाई सब कार्य जैसा वे छोड़ गये है मेसा ही पड़ा है। होती थी; फिर भी उनकी आज्ञा का उलघन नहीं करता हां तो मैं कह रहा था उनकी अन्तिम रात्रि के विषय था। जैसे तैसे लिखकर समय पर दे देता फिर वे उसे ठीक में। वह यह कि मुझे ता० १३ दिसम्बर ६८ को फ्लू कर देते थे और छपने के लिए भेज देते थे। सदा मुझे हुआ उसमें ज्वर खांसी हुआ। इधर उनकी भी तबियत कहते रहते थे कि मै तुम्हे समाज में आगे लाना चाहता एक माह से अधिक खराब चल रही थी। सारे शरीर में हैं और जो भी समाज का कार्य, साहित्य का कार्य, सस्था खुजली व वीपिग एगजिमा का प्रकोप तथा चौबीस घन्टे का कार्य व लेखादि का कार्य करो बड़ी दृढ़ता और प्रमा- ज्वर और सारे बदन मे सूजन जिसके कारण वे बहुत णिकता के साथ, खोज के साथ और निर्भय होकर करो बेचैन रहने लगे और दुर्बलता अधिक हो गई फिर भी तुम्हारा कभी अनिष्ट नहीं होगा। प्रललटप्पू लिखने व बातचीत ठीक करते थे और सबको सात्वना देते रहते थे । प्रमाण रहित लिखना अथवा पागम के विरुद्ध चलने में बहत सा उपचार व औषधि प्रादि देने पर भी उको जरा हानि ही होगी। और प्रशसा के पात्र न हो सकोगे । यही भी शान्ति न मिली, तो मैने उनसे कहा कि प्रौषधादि के मेरे जीवन का लक्ष्य व कसौटी रही है और इसी आधार साथ-साथ अपनी भक्ति प्रयोग का निमित्त भी लगाइये। पर उन्होंने बड़े-बड़े कठिन से कटिन शास्त्रों का अनुवाद, ऐसा करने से दो चार दिन बाद उन्हे रोग मे कुछ उपसर्जन तथा संशोधन कर डाला और समाज को दिखा शमता मालूम दी। एगजिमा की हालत तो कुछ ठीक हो दिया कि कार्य किस प्रकार होता और हर एक खंडन मंडन गई, ज्वर भी शान्त हो गया; परन्तु खुजली व सूजन चलती के उत्तर के लिए सदैव तत्पर रहते थे उन्हें पूर्ण विश्वास रही, जो पैरो पर अधिक थी। इस कारण चलने फिरने मे • रहता था; क्योंकि उनके लेख अकाटप और प्रामाणिक वे कठिनाई अनुभव करते थे; फिर भी शौच यादि को होते थे। स्वामी समन्तभद्र के सच्चे अगाढ परमभक्त थे तो चलकर ही जाते थे, कभी गिर भी पड़ते थे परन्तु उठ उनके जितने भी कठिन से कठिन ग्रन्थ जिनका आजकल कर फिर चलने लगते थे, सहारा देकर चलने के लिए को साधारण योग्यता रखने वालों के लिए समझना मुझे मना कर देते थे कि मैं तो चला जाऊँगा मरने के मुश्किल था उनका बड़ी सरलता के साथ हिन्दी अनुवाद पाठ दिन पूर्व उन्होंने एक अजीव स्वप्न देखा जो रात्रि करके समाज के हित मे वितरण करते थे और उनकी के अन्तिम पहर में देखा और मुझसे कहा कि आज मुझे सभी पुस्तकें व लेख लोकप्रिय होते थे। कभी किसी से प्रात्म-दर्शन हो गया है मैने कहा कि बहुत अच्छी बात है यदि मनमुटाव हो भी जाता था तो मन में कभी नहीं कि आपको प्रात्म-दर्शन हो गया है और आपके इतने दिनो

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