________________
१२४
अनेकान्त
ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों के एक माथ क्षय करते हैको प्राप्त हो जाने पर भी यदि केवली के वे दोनों उपयोग
पूर्वोक्त आदि-निधनता के प्रसग का निरसन करते एक काल मे नही रहते है तो केवलज्ञानकाल मे केवल- हए कहा गया है कि आगम मे मति आदि तीन ज्ञानो के दर्शन के प्रभाव से जैसे दर्शनावरण का क्षय निरर्थक क्षयोपशम का काल छयासठ सागरोपम कहा गया है। ठहरता है वैसे ही केवलदर्शन के काल में केवलज्ञान के
ल म कंवलज्ञान के परन्तु उपयोग की अपेक्षा उन क्षायोपशमिक तीन ज्ञानो मे बिना ज्ञानावरणका क्षय भी निरर्थक सिद्ध होता है । लाक एक ही कोई सम्भव है और वह भी अन्तमहतं काल तक । में भी देखा जाता है कि जिन दो दीपको का प्रावरण हटा फिर भी लब्धि की अपेक्षा जिस प्रकार उनके इस क्षयोपशमलिया गया है वे दोनो युगपत् ही घट-पटादि पदार्थों को
काल (६६ सा.) मे कोई बाधा नही पाती उसी प्रकार प्रकाशित करते है-ऐसा नहीं है कि दोनों के निरावरण
केवलज्ञान और केवलदर्शन की सादि-अनिधनता में भी कोई होने पर भी उनमे जब एक पदार्थो को प्रकाशित करता है तब
बाधा उपस्थित नहीं होती-उपयोग की अपेक्षा इन दोनो दूमग न करता हो। अथवा, उन दोनो (केवलज्ञान व दर्शन)
में से किसी एक के होने पर भी लब्धि की अपेक्षा उन दोनो के परस्पर आच्छादकता का प्रसग अनिवार्य हो जाता है ।
की सादि-अनन्तता बनी रहती है। इस पर यदि यह कहा अथवा, आवरण के क्षीण हो जाने पर भी यदि उन दोनो
जाय कि क्षायिक ज्ञान-दर्शन के लिए क्षायोपशमिक ज्ञान मे एक का अभाव रहता है तो अन्वय-व्यतिरेक के
का दृष्टान्त देना उचित नहीं है, तो इसके लिए दूसरा अभाव में प्रावरण की कारणता समाप्त हो जाती है। तब
दृष्टान्त यह दिया जाता है कि अरहत के पाच प्रकारके वैमी अवस्था मे एक किमी उपयोग का या तो सदा सद्भाव
अन्तराय का क्षय हो जाने पर भी वे निरन्तर न दान देत रहेगा या अभाव ही रहेगा।
है, न लाभ लेते है, न भोगते है और न उपयोग वस्तु का इसके अतिरिक्त दोनो उपयोगो के एक साथ न मानने
अनुभव भी करते है। फिर भी उनके अन्तरायक्षय के कार्यपर केवली के कंवलदर्शन के काल में असर्वज्ञता का तथा
भूत इन दानादि की जिम प्रकार सम्भावना की जाती है केवलज्ञान के काल में असर्वशित्व का प्रसग भी कैसे टाला जा मकता है ?
उसी प्रकार ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षय के कार्यदोनों उपयोगों की क्रमवृत्तिता
भून केवलज्ञान और केवलदर्शन निरन्तर नही रहते, किन्तु जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण' प्रादि कितने ही प्राचार्य एक काल मे उन दोनो मे में एक ही कोई रहता है। फिर उक्त दोनो उपयोगो को अयुगपत्ति -क्रमवर्ती-मानते भी उक्त क्षायिक दानादि के समान इन दोनो उपयोगों है । वे युगपद्वाद में दी गई युक्तियो का खण्डन इस प्रकार का भी अस्तित्व उनके ममझना चाहिए। जिस प्रकार १ नन्दी. च. (उ. ४), पृ. २८; ध. स. १३३६
अन्तराय के क्षय का यह प्रभाव है कि केवली में दानादि २ नन्दी. चू. (उ. ५ व ११)पृ. २८, २६, ध.स.१३४०.
के एक माथ न रहने पर भी यदि वे देने आदि मे प्रवृत्त
होते है तो उसमे कोई विघ्न उपस्थित नही हो सकता है, ३ अन्ये-जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः- एकान्तरित जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छन्ति श्रुतोपदेशेन - यथा
इसी प्रकार केवली के ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त होने पर श्रतागमानुसारेणेत्यर्थः । नन्दी. हरि. वृत्ति (उ १),
आवरण के क्षय का यह प्रभाव है कि उनके उसमे बाधा प. ४०, अत्र च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानाम
होना सम्भव नहीं है। युगपदभाव्यूपयागद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युग- y परेणाने सति प्रागमवादी जिनभद्रगणिक्षमापभावि तद्वयमिति । समति अभय वृत्ति २११०.
धरण आह-धर्मस ग्रहणी मलय. वृत्ति १३४१. नाणम्मि दसणम्मि य एत्तो एगतग्यम्मि उव उत्ता।। सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो नत्थि उवयोगा (नि)
विशे. भा. ३७४०-४१, नन्दी. च. (उ. ६) पृ२८; विशे. भा. ३७३६ (ई. १६३७); नन्दी. चणि (उ.
ध. म. १३४१. २२), पृ. ३०;
७ नन्दी. च. (उ. ७-१०) पृ. २६; घ. स. १३४२-४५.