Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 250
________________ २२६ मुल्तार सा. की बहुमुखी प्रतिभा निष्कर्ष यह हुआ कि यथार्थ योगस्वरूपका प्ररूपक यह वाधिकार, (४) बन्धाधिकार, (५) सवराधिकार, (६) योगसार-प्राभूत ग्रन्थ अध्येताके लिये परमात्माका साक्षा- निर्जराधिकार, (७) मोक्षाधिकार और (८) चारित्रास्कार करनेवाला है। धिकार। प्रतियों मे नौवें अधिकारका कोई विशेष नाम जयधवला (१, पृ० ३२५) के अनुसार प्राभत नहीं उपलब्ध हया-उसका उल्लेख प्रायः 'नवमाधिकार' (प्राभूत) वह होता है जो प्रकृष्ट अर्थात् सर्वोत्कृष्ट के नामसे हेपा है। भाप्यकारने उसका निर्देश 'चूलिकातीर्थंकर द्वारा प्रस्थापित हुआ है, अथवा प्रकृष्ट अर्थात् धिकार' नामसे किया है। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने इस विद्यास्वरूप धनसे सम्पन्न ऐसे पारातीय प्राचार्योंके द्वारा प्रकारसे किया हैधारण किया गया है जिसका व्याख्यान किया गया है- दूसरे अधिकारोकी तरह उसका कोई खास नाम नहीं या पूर्व परम्परासे जो लाया गया है। दिया गया, जब कि ग्रन्थसन्दर्भ की दृष्टि से उसका दिया जाना यह है मुख्तार सा० की सुक्ष्म दृष्टि जो ग्रन्थकारके प्रावश्यक था। वह अधिकार सातो तत्त्वों तथा सम्यकहार्दको स्पर्श कराती है । इस ग्रन्थ-नामकी यथार्थतामे ग्रन्थ- चारित्र जैसे आठ अधिकारोके अनन्तर 'लिका' रूप में कारको योग शब्दसे उपर्युक्त प्रशस्त ध्यान ही अभीष्ट स्थित है-पाठो अधिकारोके विषयको स्पर्श करता हुआ रहा है । यथा उनकी कुछ विशेषताओका उल्लेख करता है-और इसविविक्तात्मपरिज्ञानं योगान् सजायते यत' । लिये उसका नाम यहा 'चलिकाधिकार' दिया गया है। स योगो योगिभिर्गीतो योगनि—तपातकैः ।। जैसे किसी मन्दिर (भवन) की चूलिका-चोटी-उसके यो० स० प्रा०६-१० कलशादिके रूपमे स्थित होती है उसी प्रकार 'योगसारअर्थात् योगसे कर्म-कालिमाको धो डालनेवाले योगियो प्राभृत' नामक इस ग्रन्थ-भवनकी चूलिका-चोटी-के ने योग उसे ही कहा है जिसके आश्रयसे विविक्त-समस्त रूपमे यह नवमा अधिकार स्थित है, अत' इसे 'चूलिकापर भावोंसे भिन्न शुद्ध-पात्मतत्त्वका बोध होता है । इस धिकार' कहना समुचित जान पड़ता है। प्रकार चूंकि वह प्रात्मावबोध प्रशस्त ध्यानसे ही सम्भव (प्रस्तावना पृ० २५) है, अतः वही प्रकृत मे ग्राह्य रहा है । ग्रन्थगत समस्त श्लोकसख्या ५४० है । विषयका इस प्रकार अपने उक्त सार्थक नामके अनुसार योग- विवेचन अधिकारोके नामानुसार यथास्थान रोचक प्राध्यास्वरूपकी प्ररूपणा करनेवाला प्रस्तुत ग्रन्थ अतिशय मनो- त्मिक पद्धतिसे किया गया है। उसका परिचय भाष्यकारने मोहक है; उसकी भाषा सरल व सुललित है, विषयके प्रस्तावना पृ० २५-३१ मे श्लोकसख्याके निर्देशपूर्वक प्रतिपादनको शैली भी उत्कृष्ट है। ग्रन्थकार श्री अमित- स्पष्टतामे करा दिया है। गतिने भगवान् कुन्दकुन्दके समस्त प्राध्यात्मिक साहित्यका प्रथम जीवाधिकारके अन्तर्गत आत्मा और मानके मनन कर तदनुसार ही इस ग्रन्थको रचा है । उसके बहुतसे प्रमाण तथा ज्ञानकी व्यापकताको बतलानेवाला निम्न श्लोक श्लोकोंमें समयसारादि ग्रन्थोकी छाया स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है। इसे भाष्यकारने तुलनात्मकरूपसे कही ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञान ज्ञेयप्रमं विदुः । अपनी व्याख्या के मध्यमें और कही टिप्पणीके रूपमें इतर लोकालोकं यतो ज्ञेयं ज्ञानं सर्वगत ततः ॥१६॥ ग्रन्थगत समान उद्धरणोंको देकर स्पष्ट भी कर दिया है। ___ यह श्लोक प्रवचनसार गा० १-२३ का प्रायः छाया ग्रन्थका प्रमुख विषय योग है। उसके विवेचन के लिये नुवाद है'। इस श्लोककी व्याख्या मुख्तार साने सरलता. जिन प्रासंगिक विषयोंका-जीवाजीवादि तत्त्वोका- पूर्वक विस्तारसे की है। प्रात्मा ज्ञानप्रमाण क्यों है. विवेचन आवश्यक प्रतीत हया उनका भी वर्णन ग्रन्थमें कर इसका स्पष्टाकरण करत हुए उन्होंने यह बतलाया है कि दिया गया है। तदनुसार ग्रन्थ इन नौ अधिकारोंमे विभक्त १. प्रादा णाणपमाण णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ट। है-(१) जीवाधिकार, (२) अजीवाधिकार, (३) प्रास्र- णेय लोगालोग तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314