Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 248
________________ मुख्तार सा० की बहुमुखी प्रतिभा बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री साहित्य के अनन्य उपासक स्व. पं० जुगुलकिशोर बल पर ही स्वयभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाजी मुख्तार एक ख्यातिप्राप्त इतिहासकार थे। उनका चार, तत्त्वानुशासन, देवागमस्तोत्र, कल्याण-कल्पद्रुम लौकिक शिक्षण हाईस्कूल तक ही हो सका था । धार्मिक (एकीभाव-स्तोत्र) और योगसार-प्राभूत जैसे महत्त्वपूर्ण शिक्षण भी एक स्थानीय (सरसाबा) छोटी सी पाठशाला ग्रन्थों पर भाष्य लिखे है। ग्रन्थ के अन्तर्गत रहस्य को में साधारण ही हुआ था। परन्तु वे बाल्यावस्था से ही प्रस्फुटित करने वाले उनके इन भाष्यों की भाषा भी अतिशय प्रतिभाशाली रहे हैं, तर्कणाशक्ति भी उनकी तदनुरूप सरल और सुबोध है । इन भाष्यों के परिशीलन अद्भुत थी । इसीलिये वे सुरुचिपूर्ण सतत प्रध्यवसाय से एक से ग्रन्थकार के अभिप्राय के समझने में किसी को कोई मादर्श साहित्यस्रष्टा और समीक्षक हो सके। उन्होंने कठिनाई नही हो सकती। उनकी पद्धति यह रही है कि जीवन मे वह महान कार्य किया है जो उच्च शिक्षा प्राप्त प्रथमत. ग्रन्थ के विवक्षित श्लोक प्रादि का नपे तुले शब्दों करने वाले विद्वानों से सम्भव नहीं हुआ। मे शब्दानुवाद करते हुए यदि उसमे कही कुछ विशेष __ जिस समय समाज मे रूढ़िवाद प्रबल था उस समय शब्दार्थ की अावश्यकता दिखी तो उसे दो डंशो(-) के उन्होने घोर सामाजिक विरोध का दृढ़ता से सामना करते मध्य में स्पष्ट कर देना और तत्पश्चात् वाक्यगत पदों की हुए भट्टारकों के द्वारा भद्रबाहु, कुन्दकुन्द, पूज्यपाद और गम्भीरता को देखकर व्याख्या के रूप मे तद्गत ग्रन्थकार अकलक जैसे प्रतिष्ठाप्राप्त पुरातन प्राचार्यों के नाम पर के प्राशय को उद्घाटित कर देना । जो भद्रबाहुसंहिता, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, पूज्यपाद श्रावका मु० सा० कुशाग्रबुद्धि तो थे ही, साथ ही वे अध्ययनचार और अकलकप्रतिष्ठा-पाठ आदि ग्रन्थ लिखे गये है उनका गील भी थे । जब तक वे किसी ग्रन्थ का मननपूर्वक पूर्णअन्तःपरीक्षण कर उन्हे जैनागम के विरुद्ध सिद्ध किया। तया अध्ययन नही कर लेते तब तक उसके अनुवादादि में समय-समय पर लिखे गये उनके इस प्रकार के निबन्ध प्रवृत्त नहीं होते थे । पावश्यकतानुसार वे एक-दो बार ही 'ग्रन्थ-समीक्षा' के नाम से पुस्तक रूप मे ४ भागों में प्रका नही, बोसो बार ग्रन्थ को पढ़ते थे। साथ ही ग्रन्थ में शित हुए है। उनके इस दृढ़तापूर्ण कार्य को देखकर यह जहाँ-तहाँ प्रयुक्त विभिन्न शब्दो के अभीष्ट प्राशय के कहना अनुचित न होगा कि उन्होंने प्राचार्य प्रभाचन्द्र की 'त्यजति न विवधानः कार्यमुद्विज्य धीमान् खलजनपरि ग्रहण करने का भी पूरा विचार करते थे। कारण कि इसके बिना ग्रन्थ के ममं को उदघाटित नही किया जा सकता। वृत्तः स्पर्धते किन्तु तेन ।' इस उक्ति को पूर्णतया चरि उदाहरणार्थ समीचीन-धर्मशास्त्र-उनके रत्नकरण्डतार्थ किया है। उन्होने जिस विरोधी वातावरण मे इस कार्य को सम्पन्न किया है उसमें अन्य किसी को यह साहस श्रावकाचार के भाष्य--को ही ले लीजिये। वहाँ श्लोक - उपर्यत यन्थों को इस प्रकार से २४ में 'पाषण्डी' शब्द का प्रयोग हग्रा हैइसका प्राचीन अप्रामाणिक घोषित कर सके। १. योगसार-प्राभूत की प्रस्तावना (पृ. २५) में उन्होंने भाष्यकार के रूप में स्वयं उस ग्रन्थ के सौ से भी अधिक बार पूरा पढ़ उन्होने संलग्नतापूर्वक निरन्तर चलने वाले जाने की सूचना की है। अपने अध्ययन से जो उत्कृष्ट प्राध्यात्मिक और २. सग्रन्थारम्भ-हिसानां संसाराऽऽवर्तवर्तिनाम् । सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त किया वह आश्चर्यजनक था। इस पाषण्डिना पुरस्कारो ज्ञेयं पापण्डिमोहनम् ।। प्रकार से जो उन्होंने प्रखर पाण्डित्य प्राप्त किया उसके (स०प० शा० २४, पृ० ५९)

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