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श्रीपुर क्षेत्र के निर्माता राजा भोपाल
बुध हरिषेण चित्तौड़ से अचलपुर पाये थे। और वहां उनके कल्पित काल झूठा है यह सिद्ध करने की इस शिलालेख द्वारा 'धर्मपरीक्षा' नाम का ग्रंथ समाप्त करने का उल्लेख से अन्य प्रमाण की मावश्यकता नहीं रहती। किया जाता है । ग्रंथकी प्रशस्ति में हरिषेण लिखते है
दूसरा जो लेख है वह तो स्पष्ट ही है। तथा 'अंत"सिरि चित्तउडु चइवि प्रबलउर हो, गयउ नियकज्जे
रिक्ष श्री पार्श्वनाथ निजकुल' का अर्थ गर्भगृह ऐसा करें
ज जिमहरपउरहो। तहि छंदालंकार-पसाहिय, धम्मपरीक्ख
तो अमरकुल मे उत्पन्न सेठ जगसिंह ने इस मन्दिर का एह ते साहिय ॥"
सके १३२७ (ई० स० १४०६) में इसका जीर्णोद्धार इससे इतना तो निर्विवाद है कि 'धम्मपरीक्षा' को कराया था। इनका वंश खटवड था। रचना अचलपुर में हुई थी। लेकिन उसकी प्रशस्ति किसी
गत साल के उत्खनन में एक स्तंभ मिला था, उसके और जगह लिखो गयी है क्योकि 'गयउ', 'हि' ये शब्द
ऊपर सं० १८११ माघ सुदि १०मी को मन्दिर का उद्धार अचल पुर में बैठ कर लिखे नही जाते । प्रशस्ति के प्रारंभ
किसी संतवाल ने किया है ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। मतलब में ही हरिषेण लिखते हैं-'इह मेवाड-देसि'-जन संकुलि' ......... ' इसमें 'इह' शब्द पर मेरा ध्यान जाता है
यह है कि आज तक इस मन्दिर के कितने समय उद्धार
कार्य हुये होंगे तो भी वह सब अधूरे हैं। स० १८६८ का और मैं इस मान्यता में हूँ कि हरिषेण, प्रशस्ति लिखते समय वापिस मेवाड मे ही होंगे । अगर मेरा यह अनुमान
वयस्क आदमी भी यही कहता था कि 'मन्दिर उस समय सफल रहा तो बुध हरिषेण सिर्फ कुछ काल के लिये ही
तक कभी भी पूरा नही हुआ।' अचलपुर आये थे ऐसा मानना उचित होगा। और वह
आज भी वैसी ही स्थिति है। मन्दिर पर पांच जगह काल अगर इस प्राचीन पवली मन्दिर के प्रतिष्ठा का
शिखर बनाने की योजना होने पर भी एक जगह भी होगा तो वह चौमासा हरिषेण ने अचलपुर में बिताया
शिखर नही बन पाया। सिर्फ गर्भागार के ऊपर ईंटों का होगा और वहां धर्म परीक्षा की रचना करके चौमासा के
बनाना चाल था तो वह भी ३ फीट के ऊँचाई में अधूरा बाद फिर अपने क्षेत्र चले गये और वहां प्रशस्ति जोड़ के
छोड़ा गया। ग्रय की समाप्ति की, ऐसा लगता है; क्योकि सिरपुर या खैर अभी सारे जैन समाज का ध्यान इधर है, मंदिर मुक्तागिरि का वार्षिक मेला कार्तिक सुदी पूनम को ही की माल की तथा ताबा अपना ही है और कोर्ट से भी भरता है। साथ में मुझे तो ऐसा लगता है कि शिलालेख इस मान्यता को पुष्टी मिली और इस मन्दिर की इर्दमे उल्लेखित जो भट्टारक है उनका भी चौमाता शिरपुर गिर्द जमीन दिगबरों के हाथ पाने का फैसला हाल ही या प्रचलपुर में ही हुआ होगा। और भट्रारक श्रीका अकोला कोर्ट से मिला है। गमन होने पर हरिषेण भी अपने स्थान को चले गये १६ साल बाद इस मन्दिर को एक सहस्र साल पूरे होंगे।
होंगे। तब एक सहस्री अच्छे उत्साह के साथ मनाने की इस शिलालेख से इस प्राचीन मन्दिर तथा उसके योजना चली है । तब तक इस मन्दिर पर शिखर बनना, निर्माता राजा श्रीपाल का काल निश्चित हो गया। जो धर्मशाला का निर्माण होना आदि कार्य पूरे होने चाहिए। हमारे भूत लेखों में वर्णित काल से अभिन्न ही है। श्वे. इसके लिये एक लाख रुपये का बजट होना चाहिए। ताम्बर लोग इस मन्दिर के निर्माण का काल स० ११४२ समाज का ध्यान तथा हमारे अगुये का लक्ष इस सस्थान मानते है । यह मान्यता सौ साल बाद की और निश्चित की ओर है तो यह कार्य निश्चित ही पूरा होगा ऐसी गलत है। सिर्फ अभयदेव सूरि जैसे महान् तपस्वी आचार्य शुभ कामना के अलावा अभी मै कुछ भी नहीं लिख के साथ श्रीपाल राजा का सम्बन्ध बिठाने के लिए स्व- सकता।