Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 205
________________ १६० अनेकान्त आपकी शिक्षा का प्रारम्भ ५ वर्ष की अवस्था मे सर्वथा अभिभावकों के ऊपर निर्भर रहना अकर्मण्यता है। हो गया। प्रापने मकतब के मुशी जी से उर्दू फारसी का किन्तु मनस्वी जीव को जीवन-संग्राम में स्वाभिमान पूर्वक पढ़ना प्रारम्भ किया। प्रापकी बद्धि अच्छी थी और जीवन व्यतीत करना ही सार्थक है ऐसा प्रापका विश्वास धारणा शक्ति प्रबल थी, इस कारण आपने उर्दू फारसी था। अतएव आपने अपनी रुचि के अनुसार उपदेश द्वारा का अच्छा ज्ञान जल्दी ही प्राप्त कर लिया। आपने जनता को जाग्रत करने का कार्य श्रेष्ठ समझकर उपदेशक हकीम उग्रसेन जी द्वारा सस्थापित स्थानीय पाठशाला मे का कार्य पसन्द किया। आप बम्बई प्रान्तिक सभा के हिन्दी सस्कृत का अध्ययन किया । सस्कृत भाषा का अच्छा उपदेशक हो गए। इस कार्य के लिये आपको पारिश्रमिक ज्ञान प्राप्त होते ही आपकी रुचि जैन शास्त्रो के अध्ययन भी मिलता था परन्तु विचार करने पर इस कार्य मे भी की हई। परिणाम स्वरूप रत्नकरण्डश्रावकाचार, तत्त्वार्थ उदासीनता पाने लगी । और आपने सभवतः दो महीने से सूत्र और भक्तामरस्तोत्र आदि का अध्ययन किया। पहले ही उपदेशकी से स्तीफा दे दिया। क्योकि आपकी प्रापका १३-१४ वर्ष की अवस्था में विवाह हो गया उन्ही विचार धारा स्वतंत्र जो थी उसमे परतत्रता का अंश भी दिनों सरसावा मे अग्रेजी का एक स्कूल खुला जिसमे नहीं था। एक स्वाभिमानी व्यक्ति के लिये अवैतनिक रूप मास्टर जगन्नाथजी अध्यापन कराते थे तब आपने अग्रेजी में कार्य करना उचित है। यह विचार भविष्य में आपके का पांचवी कक्षा तक अध्ययन कर लिया। इसक बाद जीवन के लिये सुखद हा । और आपने स्वतत्र व्यवसाय सहारनपुर के स्कूल में दाखिल हुए और नौवी कक्षा तक करने का विचार किया। परिणामस्वरूप मुख्तारकारी अध्ययन किया। कारण वश स्कूल में जाना छोड दिया का प्रशिक्षण प्राप्तकर सन् १६०२ में मुख्तारकारी की किन्तु प्राइवेट रूप मे एन्ट्रेन्स की परीक्षा में उत्तीर्णता परीक्षा पास की। और सहारनपुर मे ही प्रैक्टिस शुरु कर प्राप्त की, मैट्रिक की परीक्षा में सफलता मिलने के बाद दी। सन् १६०५ मे प्राप देवबन्द चले गये और वहां आपके समक्ष जीवन का संघर्ष कठोरतमरूप में उपस्थित अपना स्वतन्त्र कानूनी व्यवसाय करते हुए आप बराबर होने लगा; क्योकि आप गृहस्थ जो थे और यह समझना समाज-सेवा के कार्यों में भाग लेते रहे। उचित था कि योग्य होने पर अपनी आजीविका का (क्रमशः) निर्वाह स्वय ही करना चाहिये । उस अवस्था मे भी साहित्य-समीक्षा १. प्रादिपुराण में प्रतिपादित भारत-लेखक डा० स्थितिका अच्छा निदर्शन है। यदि उसे जैनोका महाभारत नेमिचन्द्र शास्त्री एम. ए. डी. लिट् । प्रकाशक, मत्री श्री कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। डा० नेमिचन्द्र गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला १/१२८ डुमराव बाग, अस्सी- शास्त्री ने अपने गम्भीर अध्ययन और प्रौढ लेखनी द्वारा वाराणसी-५। प्राकार डिमाई साइज, पृ० संख्या ४३८. आदिपुगण मे प्रतिपादित रत्न सम्पदा का पाण्डित्यपूर्ण मूल्य बारह रुपया। विवेचन किया है। ग्रन्थ सात अध्यायो में विभक्त है। ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। प्राचार्य प्रथम अध्याय में आदिपुराण और उसके कर्ता जिनसेन के जिनसेन का प्रादिपुराण जैन सस्कृति के बहुमूल्य उपादानों जीवन तथा उनके कर्तृत्व पर प्रकाश डाला गया है। का प्राकार है । इसमें नौवीं शताब्दीके भारतकी सांस्कृतिक दूसरे अध्याय में प्रादिपुराण में प्रतिपादित भूगोल का

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