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अनेकान्त
साहब की लेखनी उनका लेखन कितना प्रौढ़ और सप्रमाण ही स्वद्रव्य से वीर सेवा-मन्दिर के भवन का निर्माण होता था।
कराया । वहाँ भी मै एक दो बार गया। मुख्तार साहब उत्तर तो कोई दे नहीं सका किन्तु मुख्तार साहब को मैंने कभी हताश या निराश नहीं पाया । मेरे विचार से सुधारक शिरोमणि मान लिये गये और स्थिति पालक
मुख्तार साहब का एक-मात्र कर्म में विश्वास था। वह समाज से एक तरह से उनका सम्बन्ध विच्छेद जैसा हो
किसी भी स्थिति में कर्मविरत नहीं हुए उन्होंने कभी गया। उसने उनको कभी नहीं सराहा ।
भी इस पोर दृष्टि नहीं दी कि उनकी सेवा का मूल्यांकन सन् २९२३ में देहली पञ्चकल्याणक महोत्सव के ।
समाज करता है या नहीं ? क्योंकि उनकी सेवा मूल्यांकन अवसर पर बाबूदल महासभा से अलग हो गया और उसने
के लिए नही थी, वह तो सेवा के लिए, प्रात्मसन्तोष के दि० जैन परिषद् की स्थापना की । परिषद् सुधारकों की
लिए थी। यदि ऐसा न हो तो क्या अपनी सस्थापित संस्था थी; किन्तु मुख्तार साहब का उसके साथ भी कोई
संस्था वीर सेवा मन्दिर से हट कर और अपने भतीजे के मम्बन्ध नहीं था। एक तरह से मुख्तार साहब सामा
के घर में रह कर भी उसी तरह साहित्य के सर्जन मे जिक से अधिक साहित्यिक ही थे और उसी मोर उनकी
तल्लीन रह सकते थे? उन्हें हमने कभी किसी से रुचि तथाप्रवृत्ति बढ़ती गई । किन्तु उनकी साहित्यिक प्रवृत्ति
शिकवा करते नहीं सुना । कभी उन्होने यह नही कहा कि भी सुधारक प्रवृत्ति से अछूती नहीं थी। उसमें भी वह ऐसे विषयों पर लेखनी चलाते थे जो समाज के स्थिति
मैने इतनी सेवा की किन्तु किसी ने कद्र नही की। पालक पक्ष के लिये ग्राह्य नही होता था जैसे 'गोत्र कर्मा- वह तो सबसे यही चाहते थे कि मेरी ही तरह सब श्रित उच्चनीचता।' इसका फल यह हुआ कि मुख्तार लोग सेवा में जुटे रहें इसी से उनके पास कोई ठहरत। साहब एक तरह से समाज से विलग जैसे हो गये। चूंकि नहीं था। विचारों में उदार होते हुए भी व्यवहार मे उनका जीवन स्वावलम्बी था, समाजाश्रित नहीं था तथा अनुदार थे । यह भी कह सकते हैं कि वह व्यवहार चतुर उन्हे अपने लेखन और अध्ययन से भी अवकाश नही था नहीं थे। यदि वह वीर सेवा मन्दिर के व्यवस्थापन कार्य अतः मुख्तार सा० ने भी उस विलगाव की उपेक्षा सी की। से निरपेक्ष रह कर साहित्य सेवा में सलग्न रहते तो वीर
१९३० में प्रथमवार मुख्तार साहब ने देहली में एक सेवा मन्दिर की तथा स्वय उनकी ऐसी स्थिति न होती। संस्था समन्तभद्राश्रम की स्थापना की और उससे उनका एक साहित्यिक परिवार होता जो उनके कार्य को 'अनेकान्त' नामक मासिक पत्र प्रकाशित किया उसी समय प्रगति देता। उन्होंने जिस भावना से वीरसेवा मन्दिर की प्रथमवार मैं पत्र द्वारा मुख्तार सा० के परिचय में प्राया। स्थापना की थी उनकी वह भावना भावना ही रही। उस उनकी योजना अद्भुत थी, उसे पढ़ कर मेरे जैसे साहि- भावना को चरितार्थ करने का प्रयास तो करना चाहिए। स्याभिरुचि युवक का आकृष्ट होना स्वाभाविक था। देहली में वीरसेवा मन्दिर बहुत अच्छे स्थान पर स्थित ग्रीष्मावकाश में मैं बनारस से देहली गया और समन्त- है उसे साहित्यिक प्रगति का केन्द्र बनाया जा सकता है। भद्राश्रम में ठहरा। तब भी वह अकेले ही काम में जुटे उसके भवन में मुख्तार साहब का एक तैल चित्र रहना रहते थे। गर्मी के दिन थे। किन्तु उनके लिये गर्मी सर्दी चाहिये। अनेकान्त के मुख्य पृष्ठ पर उनका एक छोटा और दिन रात सब बराबर थे। उस समय वहाँ डा. ए. एन. सा ब्लाक बराबर छपना चाहिए। मुख्तार सा० के जीवन उपाध्ये भी पाये थे। वह भी तभी कार्य क्षेत्र में उतरे थे। में जो नहीं हो सका यदि वह उनके बाद भी हो सके तो
अनेकान्त के प्रारम्भिक वर्षों के अंक बहुमूल्य नवीन उत्तम है। जो कुछ मालिन्य थे वह तो उनके साथ चले सामग्री से परिपूर्ण होते थे। मुख्तार साहब का श्रम उसके गये । उन सब को भुलाकर मुख्तार साहब ने जो कुछ कण-कण में समाया रहता था। किन्तु समाज से सहयोग किया अब उसे देखना चाहिए। न मिलने के कारण समन्तभद्राश्रम देहली से उठा कर
समन्तभद्राश्रम दहला स उठा कर मुख्तार साहब मुख्तार साहब थे। उनके जैसा लेखनी सरसावा चला गया और मुख्तार साहब ने सरसावा में का धनी और साहित्यसेवी होना दुर्लभ है।