Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 202
________________ अग्रवालों का जैन सस्कृति में योगदान १८७ गम सूत्र, आत्मानुशासन, पंचास्तिकाय, समयसार और जैनी की स्मृति में भी कोई काम करना चाहिए। गोम्मटसार जीवकाण्ड का अग्रेजी भाषा मे अनुवाद किया तेंतालीसवे विद्वान मास्टर बिहारीलालजी चैतन्य है। अग्रेजी भाषा में अनुवाद हो जाने के कारण अग्रेजी पढे- जिनका जन्म बुलन्दशहर मे सन् १८६७ की १५ अगस्त लिखे विद्वान भी उनका अध्यन करने में समर्थ हो सके। वि० सं० १९२४ श्रावण शुक्ला चतुर्दशीके दिन हुआ था। उनका यह उपकार किसी तरह भी भुलाया नही जा आपने सन् १८९१ में फारसी भाषा के साथ एन्ट्रेस पास सकता। और मौलिक प्रस्तावनाओं के साथ उन्हें प्रका- किया । आपके जीवन का लक्ष्य सन्तोष और परिश्रम के शित भी किया । आपने जैन पारिभाषिक शब्दों का एक साथ ज्ञान द्वारा स्व-पर हित करना था। आप (Self कोश भी तयार किया था। पापका हृदय साधर्मी वात्सल्य Made) स्वनिर्मित व्यक्ति थे। उन्होने उपासना और स्वासे परिपूर्ण था और वह कभी-कभी छलक पड़ता था। ध्याय द्वारा अपने ज्ञान को वढाया और शिक्षण द्वारा वैरिस्टर साहब ने सन् १९०४ से 'जैन गजट' अग्रेजी छात्रों को, एव पुस्तको द्वारा जन सामान्य को वह सचित का सम्पादन कार्य भी अपने हाथ में लिया। और उसमें ज्ञान प्रदान किया। उनकी भावना थी कि सभी ज्ञानी बने बराबर योगदान देते रहे। भारत जैन महामडल मे भी और स्व-पर हितो में लगे। जब वे किसी से चर्चा करते वारस्टर साहब ने जान डाली और उसे बराबर प्रोत्साहन तब अपने मजे हये अनुभव से कहते कि सन्तोष से ज्ञानादेते रहे । वे साम्प्रदायिकता से कोशो दूर रहते थे। र्जन कर अपने ज्ञान की निरन्तर वृद्धि करना और उसे आपने अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले ही १४ अगस्त स्वपर हितार्थ जनता को प्रदान करना अपना कर्तव्य है । १६३६ को अपनी जायदाद का एक वसीयत नामा लिख आप सन् १८६३ मे बुलन्दशहर के गवर्नमेन्ट हाई दिया था कि उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति जन हितार्थ एवं जैन स्कूल मे १२) रु. मासिक पर अध्यापक नियुक्त हुए थे। धर्म की रक्षा और जैनधर्म प्रचार में काम आती रहे। पश्चात् क्रमशः अपनी उन्नति करते हुए बाराबकी के सन् १६२७ मे वैरिस्टर माहब का स्वर्गवास हो गया। गवर्नमेन्ट हाई स्कूल मे सहायक अध्यापक के पद पर पहुँच उनके बाद ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी जब तक जीवित रहे गये । और १२०) रु० वेतन पाने लगे। पाप ३० जुलाई उसका कार्य लगन से करते रहे; क्योकि ट्रस्टी जो थे। सन् १९२४ (वि० स० १९८१ मे रिटायर हुए। शिक्षण उनक जीवन के बाद उसका वैसा कार्य नही हो सका। कार्य करते हुएमापने अपने समयको कभी व्यर्थ नही गमाया, ग० ब० सेठ लालचन्द जी ने ब्र० शीतलप्रसाद जी किन्तु साहित्य-सेवा के कार्य में बराबर लगे रहते थे। रिक्त स्थान में बा. जौहरीलाल जी मित्तल की नियक्ति आप हिन्दी उर्द में गद्य-पद्य के लेखक ये। आपने कर ली। और अब बा० लालचन्द सेठी के स्वर्ग- हिन्दी उर्दू में छोटी-बडी लगभग ६१ पुस्तके लिखी है ऐसा वास के बाद सेठ भूपेशकुमार जी उज्जैन को बा० जौहरी सुना जाता है उन पुस्तकों में सबसे बड़ी पुस्तक वृहत् जैन लाल ने ट्रस्टी बना लिया। ट्रस्टी की सम्पत्ति से जो शब्दार्णव नाम का कोष है, जिसके दो भाग प्रकाशित हुए महत्वपूर्ण कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो सका । और है। उसमे दूसरे भाग का सम्पादन ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी न उनकी स्मृति में कोई ग्रन्थ ही निकाला गया। मात्र जी ने किया था। भर्तृहरि की नीतिशतक और वैराग्य किसी संस्था या पत्र को आर्थिक सहयोग दे देना ट्रस्ट या शतक का अनुवाद भी आपने किया था। पडित रिखबदास वसीयत के उद्देश्य की पूर्ति नही है। प्राशा है ट्रस्टीजन जी के मिथ्यात्व तिमिरनाशक नाटक के २-३ भाग उर्दू मे ट्रस्ट की सम्पत्ति का विनिमय ट्रस्ट के उद्देश्यों के अनुसार प्रकाशित किये थे। रिटायटर्ड होने पर आप अपना पूरा करने का प्रयत्न करेंगे, जिससे ट्रस्टकर्ता की भावना पूरी समय स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन में व्यतीत करते थे । प्राप हो सके। द्रस्टियों को एक वार ट्रस्ट के उद्देश्यों को की पुस्तके अधिकतर उर्दू मे है, इस कारण मै उनका रस प्रकाशित कर देना चाहिए. जिससे जनता को जे. एल. न ले सका । हां वृहत् जैन शब्दार्णव को मैंने देखा है । जैनी ट्रस्ट के उद्देश्यों का पता चल सके। और मि० अापके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिली।

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