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अनेकान्त
विषयक दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन कहलाता है। शेष नेत्रोपलब्धि के समान चक्षु इन्द्रिय के द्वारा जो उपलब्धि इन्द्रियो के द्वारा अचक्षुदर्शनी जीव के उक्त घट-पटादि ~सामान्य अर्थ का ग्रहण-होता है उसे चक्षुदर्शन कहते द्रव्यों का जीव के साथ सम्बन्ध होने पर जो उनका दर्शन हैं। शेष श्रोत्रादि इन्द्रियो के द्वारा होने वाले सामान्यहोता है उसे अचक्षुदर्शन कहते है । (यहाँ अचक्षुदर्शन के ग्रहण का नाम प्रचक्षुदर्शन है । अवधिदर्शनावरण के क्षयोलक्षण मे जीव के साथ सम्बन्ध का निर्देश करके शेष पगम में विशेषग्रहण से विमुख अवधिदर्शन कहा जाता इन्द्रियों की प्राप्यकारिता को सूचित किया गया है।) है। इसका स्वामी नियम से सम्यग्दृष्टि ही होता है। अवधिदर्शनी जीव के जो समस्त रूपी द्रव्यो और उनकी प्रात्मा स्वभावत. समस्त प्रात्मप्रदेशों में व्याप्त रहने कुछ पर्यायो का दर्शन होता है उसे अवधिदर्शन कहा वाले विशुद्ध अनन्तदर्शन सामान्य स्वरूप है, पर उसके जाता है। केवल दर्शनी जीव के जो समस्त द्रव्यो और वे प्रदेश अनादि काल से दर्शनावरण कर्म के द्वारा पाच्छा समस्त पर्यायों का दर्शन होता है उसका नाम केवल- दिन हो रहे है। वही आत्मा चक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम दर्शन है।
और चक्षु इन्द्रिय के पालम्बन से मूर्त द्रव्य को जो कुछ श्री चन्द्रमहर्षि अपने पसग्रह की स्वो. व्याख्या मे अश में सामान्य से जानता है उसका नाम चक्षुदर्शन है। नेत्रों के द्वारा होने वाले दर्शन को नयन (चक्षु) दर्शन अचक्षदर्शनावरण के क्षयोपशम और चक्षु को छोड़कर और शेष इन्द्रियों से होने वाले दर्शन को अनयन (अचक्षु) इतर चार इन्द्रियो व मन के पालम्बन से जो मूर्त व दर्शन कहते है।
अमूर्त द्रव्यों का कुछ अश में सामान्य से अवबोध होता है, तत्त्वार्थभाप्य की वृत्ति में कहा गया है कि स्कन्धावार वह अचक्षुदर्शन कहलाता है। अवधिदर्शनावरण के क्षयोके उपयोग के समान अथवा उसी दिन उत्पन्न हुए शिशुकी पशम मे मूर्त द्रव्य का जो कुछ अंश मे सामान्य से अवबोध १ चक्खुदसण चक्खुदसणिस्स घड-पड-कड-रहाइएसु
होता है उसे अवधिदर्शन कहा जाता है। समस्त दर्शनादब्वेसु, अचक्षुदसण अचक्खुदसणिस्स प्रायभावे,
वरण के अत्यन्त क्षय से जो अन्य किसी की भी सहायता मोहिदसण सव्वरूविदब्बेसु न पुण सव्वपज्जवेसु, केवल- के बिना समस्त मूत पार अमूत द्रव्यों का सामान्य से अवदसण केवलदसणिस्म सव्वदव्वेसु अ सव्वपज्जवसु । बोध होता है, यह स्वाभाविक केवलदर्शन का लक्षण है। अनुयोग. मूत्र १४४, पृ. २१६-२०.।
दर्शन-ज्ञान को क्रमाक्रमवृत्तिता इसकी टीका मे हरिभद्र सूरि (हरि वृत्ति पृ. १०३)
उक्त दोनो उपयोगो मे मति आदि चार ज्ञान और और मल. हेमचन्द्र सूरि (अनु. वृत्ति पृ. २१६-२०)ने
चक्षदर्शनादि तीन दर्शन क्षायोपशमिक है, जो छद्मस्थ के चक्षुदर्शन और प्रचक्षुदर्शन में इतनी विशेषता मूचित
पाये जाते है। तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो की है कि ये दोनों दर्शन विवक्षित इन्द्रियावरण के ।
क्षायिक उपयोग है और वे केवली पाये जाते है। छयस्थ क्षयोपशम और द्रव्येन्द्रिय के अनुपात में होते है। साथ ही यह भी एक विशेषता प्रगट कर दी है कि ३ त. भा. मिद्ध. वृत्ति २.५. दर्शन का विषय सामान्य ही है, प्रकृत मे जो घट- ४ पचास्तिकाय अमृ. वृत्ति ४२; प्रा मलयगिरि के पटादि विशेष द्रव्यो का निर्देश किया गया है उससे द्वारा इनके लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैंउनसे (विशेषोंसे) अनन्तभूत-कचित् अभिन्न- चक्षुषा दर्शन चक्षुर्दर्शनम् ।......."अचक्षुषा-चक्षुमामान्य को ग्रहण करना चाहिए।
वशेषेन्द्रिय-मनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् ।........... नयनाभ्या दर्शन नयनदर्शनम् ।.... शेषेन्द्रियदर्शन अवधिरेव दर्शनमवधिदर्शनम् । ..... केवलमेव दर्शन अनयनदर्शनम् । पचस. स्वो. व्याख्या ३-१२२, केवलदर्शनम् । प्रज्ञापना मलय. वृत्ति २३-२६३ व
२६.३१२ तथा पंचसग्रह वृत्ति २.४, पृ. ११०.