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जगाइये, और तन मन धन परोपकार और शुद्धविचार लाने प्रारम्भ किया, साथ ही समाज-सेवा में भी योग देने लगे। की कोशिश कीजिये । जिससे पाप का यह लोक परलोक
स्व. सेठ माणिकचन्द बीजेपी बम्बई के साथदोनों सुधरें।
सन् १९०५ के दिसम्बर मे भा० दि० जैन महासभा प्रापका विवाह कलकत्ता के वैष्णव अग्रवाल छेदी
का अधिवेशन सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) मे हा था। लाल जी की सुपुत्री से हुमा था। प्रापने अपनी पत्नी के
इस अधिवेशन के अध्यक्ष बम्बई के सेठ माणिकचन्द हीरा. धार्मिक संस्कारों को प्रादर्श बनाया था। कुछ समय बाद
चन्द जे पी. थे। इसी समय ब्रह्मचारी जी का सेठ जी से सन् १९०४ मे महामारी (प्लेग) से १३ फरवरी को
परिचय हुआ था। मेठ जी कार्यकर्तामों के पारखी थे। पापकी पली का वियोग हो गया और नो मार्च को
___ आपने जिनधर्म भक्त, समाज-सेवी ब्रह्मचारी जी को अपने
र जननी तथा अनुज पन्नालाल का भी देहान्त हो गया।
यहाँ बम्बई मे रहने के लिए अनुरोध किया और क. जी दुर्दैव की इस घटना से शीतलप्रसाद जी के चित्त को बडा
सेठ जी के साथ बम्बई चले गये। ब्रह्मचारी जी ने वहा प्राघात पहुंचा। पर सत्सगति और स्वाध्याय से विचलित
रहकर सेठजी को धर्म एव समाज-सेवा के लिए उकसाया, नही हुए, भुक्त भोगी इस घटना जन्य वेदना को स्वय ।
प्रेरित किया और अपना सहयोग दिया। सेठजी ने बम्बई समझ सकते है। उस समय महामारी ने देश में त्राहि
सागली, आगरा, अहमदाबाद, शोलापुर, कोल्हापुर और त्राहि मचादी थी। इससे प्रायः सारे भारत मे तहलका
लाहौर आदि स्थानो में जैन बोडिग हाउस स्थापित किये। मचा हुआ था। अनेक परिवार एकाध व्यक्ति को छोड
इन सस्थाग्रो में विद्यार्थियो के लिए पढ़ने-लिखने और कर समाप्त हो गए थे।
रहन-सहन की मुविधा के साथ जैनधर्म के ग्रन्थो के पढ़ने अग्नि परीक्षा-स्नेही जनों के प्राकस्मिक वियोग से और उसके महत्व को समझने से उनके सस्कार सुसस्कृत उनके जीवन पर बड़ा प्रभाव पडा। यद्यपि वे निरन्तर एव सरल हो गये। स्वाध्याय और सामयिक सेवायो के कारण पर्याप्त बल ब्रह्मचारी जी मे सात्विक शुद्ध सस्कार और चारित्र प्राप्त कर चुके थे। एक ओर सरकारी नौकरी में पदो- पालन का भाव बाल्य अवस्था से ही था क्योकि आपके न्नति और वेतन वृद्धि की बलवती राशि, प्रौढावस्था की पितामह ला० मगलसनजी अपना अधिकाश समय गोम्मटउमड़ती हुई हिलोरे । कौटुम्बिक सहयोगियो का पुन: सार और समयसारादि ग्रन्थो के स्वाध्याय, तत्वचर्चा में गृहस्थी बसाने का आग्रह, कन्याओ का सोन्दर्य और व्यतीत करते थे। ब्रह्मचारी जी को धार्मिक संस्कार, योग्यता और उनके अभिभावको द्वारा सम्बन्ध स्वीकार चारित्र पालन, कर्तव्य निष्ठा का उदात्त भाव अपने पूर्वजो करने की प्रार्थना और दूसरी ओर समाज-सेवा की उत्कट से विरासित में मिला था, और स्वाध्याय द्वारा जैनधर्मका लगन, स्वाध्याय द्वारा आत्मस्वरूप को प्राप्त करने तथा मर्म ब्रह्मचारी जी के घट मे घर कर गया था। वह उन्हे समझाने का यत्न । शीतलप्रसाद जी इस अग्नि परीक्षा में बाह्य प्रलोभनो से बचने में सहायक हुआ। अतएव प्रापने खरे उतरे, उन्हे सासारिक विषय-सुखेच्छा विचलित न ३२ वर्ष की भरी जवानी मे सन् १९११ ई० के मगशिर कर सकी, वे अपने लक्ष्य की सिद्धि मे निष्ठा से लगने का महीने मे ऐलक पन्नालाल जी के समक्ष शोलापुर मे विधियत्न करने लगे। जैन ग्रन्थो के स्वाध्याय ने उनके हृदय पूर्वक ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की । ब्रह्मचारी जी प्राचारमें विषयों से विरक्ति और समाज सेवा के लिए मनको विचार और शुद्ध पाहार के पक्षपाती थे। वे त्रिकाल बलिष्ठ एव सक्षम बना दिया था। अतः उन्होंने ब्रह्मचारी सामायिक, स्वाध्याय, जिनवंदन प्रादि दैनिकचर्या में कभी रहकर समाज-सेवा मे संलग्न रहकर जीवन बिताना कमी नही माने देते थे। अच्छा समझा। इसी से उन्होंने सन् १९०५ मे सरकारी जैन साहित्य-सेवानौकरी से त्यागपत्र दे दिया। और जैनधर्म के रहस्य का सन् १९०२ मे ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी के निमन्त्रण परिचय पाने के लिए स्वाध्याय में विशेष योग देना मे महासभा के मुख पत्र 'जन-गजट' का प्रकाशन दो वर्ष