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अनेकान्त
और सन १८९७ में वैरिस्टर होकर आ गये।
केशों के मुल्जिमों को फांसी के तस्ते पर चढ़ने नही दिया। विचार परिवर्तन
प्रापकी इस सफलता के कारण कानूनी जान, भारी परिबिलायत से विद्या अध्ययन करके लौटने पर उन्मुक्त श्रम मे केशो को तैयार करना आदि थे। साथ मे जनियर वातावरण ने इनमें अजीव परिवर्तन ला दिया। शिक्षा वकीलों के साथ सद्व्यवहार भी शामिल है। इस कारण सहवास और वेष भूषा आदि के साथ चम्पतराय के लोग उन्हे श्रद्धावश 'अकिल जैन' के नाम से पुकारे विचारोमे ऐसा विचित्र परिवर्तन हुआ जिससे बाल्यकालमे इससे उन्हे व्यवसाय मे अच्छी सफलता मिली। प्राप्त धामिक शिक्षा के प्रभाव ने भी विलायत मे विदाई
प्राकस्मिक परिवर्तन ले ली। वहाँ पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव उनके हृदय पटल पर गहरा अकित हो गया था और वे ईसाइयत की
जहाँ धन-जन-सपर्क, पद एव प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई
वहाँ रहन-सहन रीति-रिवाज और व्यवहार में भी वृद्धि ओर झुकते से नजर आये। खान-पान, प्राचार-विचार
हुई। यह स्वप्न मे भी किसी का ख्याल न था कि वैरिस्टर सभी पाश्चात्य सभ्यता मे ढल गया। उनकी जीवन-धारा का बहाव विपरीत दिशा की ओर हो गया । लोक-परलोक
साहब के जीवन मे छोटी मी घटना भी विरक्ति का कारण आदि के सम्बन्ध में भी उनका विचार बदल गया। उनके
बन जायगी। वैरिस्टर साहब का गाढ स्नेह लाला रगीइस विचार परिवर्तन से धार्मिक जनता मे उथल-पुथल मच
लाल जी से था, जो उनके ससुर बाबू प्यारेलाल जी गई। कुछ को उनकी विचारधारा से आश्चर्य और खेद
वकील के लघु भ्राता थे। उनकी प्राकस्मिक मृत्यु से हुया। उनके इस अमाधारण परिवर्तन का परिणाम यह
वैरिस्टर साहब के हृदय पटल पर भारी प्रतिक्रिया हुई ।
उनका मन, इन्द्रियो के सुख और गार्हस्थ से हट कर हा कि उनके कुटुम्बी और दिल्ली जैन समाज ने उन्हे नास्तिक समझ कर उनसे बातचीत करना भी छोड दिया।
अशान्ति की ओर गया। पाश्चात्य शिक्षा और साहित्य कुछ को उनके इस परिवर्तन से बड़ी निराशा हई, वे
भी उनकी इस प्रशान्ति को दूर न कर मके। अत. आपने चाहते थे कि चम्पत किसी तरह से सन्मार्ग में लग जाय,
स्वामि रामतीर्थ के अग्रेजी में लिखे वेदान्त के ग्रन्थ पढे, किन्तु इस प्राकाक्षा की पूर्ति होना सुलभ नही था। इस
उनसे पाप का मन कुछ प्रभावित नो हृया पर पूर्ण सन्तोष सम्बन्ध मे जो प्रयत्न हुए वे प्राशाजनक नही थे। वैरिस्टर
न मिला । हाँ अन्य सम्प्रदायो के ग्रन्थो की जिज्ञासा जरूर
हई । परिणाम स्वरूप विविध धर्मो के ग्रन्थ पड़े, तर्क ने साहब का ध्यान जहा ईसायियत की अोर भुकता, वहा वे २
भी कुछ सहयोग दिया, कुछ मित्रो का अनुरोध भी था। उन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते थे, पर तर्कणा के कारण बुद्धि मद्विवेक की ओर अग्रसर नहीं हो पाती थी। इधर
किन्तु तर्क से जो शकाएँ उठती थीं उनका सन्तोषजनक
समाधान न मिलता था। देहली, मुरादाबाद, अमृतसर आदि स्थानो में वैरिस्टरी का व्यवसाय किया परन्तु वह विशेष लाभप्रद न हुअा। सनू १९१३ मे सौभाग्य से आपका सपर्क बाब देवेन्द्रअन्त मे आप स्थायीरूप से हरदोई मे पहुँच गये। वहाँ पर कुमार जी आरा से हुआ। बाबू देवेन्द्र कुमार जी बड़े आपने अपनी प्रतिभा, श्रम एव सुन्दर व्यवहार के कारण उत्साही और लगनशील कार्यकर्ता थे। उन्होंने वैरिस्टर साधारण और अपरिचित वैरिस्टर से हरदोई के प्रमुख साहब को अन्य धर्म ग्रन्थों के समान ही जैनधर्म के कुछ वैरिस्टर बन गये । इतना ही नही किन्तु वार एशोसिएशन ग्रन्थो को पढने के लिए प्रेरित किया। तब आपने जैन के सभापति तथा अन्त मे अवध चीफ कोर्ट के फौजदारी सिद्धान्त के ग्रन्थों को पढना शुरू किया। उनके अध्ययन के प्रमुख वैरिस्टर हो गये। उस प्रान्त की जनता में यह से चित्त की वह अशान्ति दूर हुई, शंकाओं का सन्तोषधारणा घर कर गई कि-"फासी की सजा से अगर जनक उत्तर भी मिला तब उन्हे स्वयं अपनी भूल का परिकिसी अपराधी को बचाना है तो जैन वैरिस्टर का सहारा ज्ञान हुा । और जैनधर्म की सत्यता पर दृढ़ प्रास्था हुई। लें"। इस प्रसिद्धि से उनके पास जितने केश आये उन
(क्रमशः)