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वर्शन पौर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाद और सापेक्षवाब
सत्ता से इन्कार करवाना तो उनकी सीमा से बाहर जाना विषय लोक-व्यवहार ही नही अपितु द्रव्य मात्र है। इसी है। सापेक्षता पाखिर माननी क्यों पड़ती है ? इसलिए लिए तो प्राचार्यों ने कहा है-"द्वीप से लेकर व्योम तक तो कि वस्तु सत्ता हमें ऐसा मानने के लिए मजबूर करती वस्तुमात्र स्याद्वाद की मुद्रासे प्रकित है।" केवली (सर्वज्ञ) है।" इस प्रकार सापेक्षवाद स्याद्वाद की अपेक्षावादिता व निश्चय नय द्वारा बताया गता तत्त्व भी कहने भर को को पूर्णतया पुष्ट करता है।
निरपेक्ष है क्योकि 'स्यादस्ति स्यान्नास्ति से परे वह भी स्याद्वाद स्वयं भी अपने प्राप मे इतना पुष्ट है कि नही है। अतः स्याद्वाद का यह डिडिमनाद कि सत्यमात्र डा. राधाकृष्णन् का तर्क उसे हतप्रभ नही कर सकता। सापेक्ष है व पूर्ण सत्य व वास्तविक सत्य उससे परे कुछ स्याद्वाद भी तो यह मानकर चलता है कि निरपेक्ष सत्य नही; वह स्वयं सिद्ध है और तर्क की कसौटी पर माधुविश्व मे कुछ है ही नहीं तो हमारे मन में उसका मोह निक सापेक्षवाद द्वारा समर्थित है। क्यों उठता है ? धर्मकीर्ति ने कहा है-"यदि पदार्थों को समालोचना के क्षेत्र में: स्वयं यह अभीष्ट हो तो हम उन्हे निरपेक्ष बताने वाले
स्याद्वाद व सापेक्षवाद दोनो ही सिद्धान्तो को अपनेकौन होते है ?" सापेक्ष सत्य के विषय मे जो सन्देह
दह- अपने क्षेत्र में विरोधी समालोचकों के भरपूर माक्षेप सहन शीलता विचारो को लगती है उसका एक कारण यह है करने पड़े है। प्राक्षेपो के कारण भी दोनों के लगभग कि सापेक्ष सत्य को पूर्ण सत्य व वास्तविक सत्य से परे
समान है। दोनो की ही विचारो की जटिलता को न पकड़ सोच लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः सापेक्ष सत्य उनसे सकने के कारण धुरघर विद्वानो द्वारा समालोचनाए हुई भिन्न नही है । हर एक व्यक्ति सरलता से समझ सकता
है। किन्तु दोनो ही वादो मे तथा प्रकार की पालोचनाए है कि नारगी छोटी है या बड़ी। यहाँ वास्तविक और
तत्त्व-वेत्तानो के सामने उपहासास्पद व अज्ञता मूलक पूर्ण सत्य यही है कि वह छोटी भी है और बड़ी भी,
सिद्ध हुई है। उदाहरणार्थ शकराचार्य जैसे विद्वानो ने अपने बड़े व छोटे पदार्थो की अपेक्षा से । यहाँ कोई यह
स्याद्वाद के हाई को न पकड़ते हुए लिख मारा--"जब कहे कि यह तो प्रापेक्षिक व अधरा सत्य है तो वह स्वय
ज्ञान के साधन, ज्ञान का विषय, ज्ञान की क्रिया सब बताये कि यहाँ निरपेक्ष या पूर्ण सत्य क्या है ?
पनिश्चित है तो किस प्रकार तीर्थकर अधिकृत रूप से कुछ एक जैन विचारको ने डा. राधाकृष्णन् की
किसी को भी उपदेश दे सकते है। और स्वय पाचरण समालोचना के साथ सगति बैठाने के लिए स्याद्वाद को
कर सकते है, क्योंकि स्यावाद के अनुसार ज्ञानमात्र ही केवल लोक-व्यवहार तक सीमित माना है और जैन दर्शन
अनिश्चित है।" इसी प्रकार प्रो० एस० के० वेलबालकर में प्रतिपादित निश्चय नय को पूर्ण सत्य (absolute एक प्रसग मे लिखते है. -"जैन-दर्शन का प्रमाण सम्बन्धी truth) बताने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह यथार्थ भाग अनमेल व अमगत है अगर वह स्याद्वाद के प्राधार नही कि स्याद्वाद केवल लोक-व्यवहार मात्र है, क्योकि पर लिया जाये । S (एस) हो सकता है, S (एस) नही 'स्थादस्त्येव सर्वमिति' और 'स्यानास्त्येव सर्वमिति अर्थात् हो सकता दोनो हो सकते है; P (पी) नहीं हो सकता, 'स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से सब कुछ है ही इस प्रकार का निषेधात्मक और अज्ञेयवादी (एग्नोप्टिक) और 'परद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा सब कुछ नही है वक्तव्य कोई सिद्धान्त नही हो सकता ।" इसी प्रकार कुछ ही' यह जो स्यावाद का हृदय सप्तभगी तत्त्व है, उसका लोगो ने कहा-'यह अजीब बात है कि स्याद्वाद दही और १ विश्व की रूपरेखा, सापेक्षवाद, पृ० ५७-५८.
भम को भी परस्पर एक मानता है। पर वे दही तो खाते २. यदिद स्वयमर्थाना रोचते तत्र के वयम् ?
है, भैस नही खाते, इसीलिए स्याद्वाद गलत है।' स्याद्वाद
पा . वेत्ताअोके सामने ये सारी पालोचनाए बचपनकी सूचक थी। ३. स्याद्वाद मजरी, जगदीशचन्द्र एम० ए० द्वारा अनू- ४. आदीपमाव्योम समस्वभाव स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । दित, पृ० २५।
-अन्ययोग व्यवच्छेदिका लो० ५