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अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान
तक लखनऊ से हमा। उन्होंने अथक परिश्रम से उसकी अच्छा होता था और 'जनता में उसका समादर होता था। विशेष उन्नति की, जिससे उसकी काया ही पलट गई वह उनकी यह महत्वपूर्ण सेवा भुलाई नही जा सकती। उन पाक्षिक से साप्ताहिक हो गया। जनमित्र का संस्थापन जैसी लगन का काम करने वाला प्राज एक भी ब्रह्मचारी श्रद्धेय प० गोपालदास जी वरया ने किया था, और उन्ही विद्वान नही है, जो प्राजके समय मे जैन सस्कृति का प्रचार के सम्पादकत्व में बह सन् १९०८ तक बम्बई से पाक्षिक
___ एवं प्रसार कर सके। रूप में निकलता रहा । किन्तु सन् १९०६ में ही ब्रह्मचारी
इकतालीसवें विद्वान वैरिस्टर चम्पतराय जी हैं। जी जैन मित्र के सम्पादक नियुक्त हुए। तब से सन् जिनका दिल्ली के कूचा परमानन्द मे लाला चैनसुखदास १९२६ तक ब्रह्मचारी जी ने उसका सम्पादन योग्यता और ही
की हवेली में माता पार्वती के उदर से जन्म हुआ था। निर्भयता के साथ किया । आपके सम्पादन काल मे समाज
इनके पितामह का नाम निहालचन्द और पिता का नाम सुधार, ऐतिहासिक खोज, जैनधर्म प्रचार, सामाजिक संग
लाला चन्द्रामल था, जो अपने पिता के समान ही नित्य ठन और शिक्षा प्रसार आदि विषयो पर अनेक लेख लिखे
देवदर्शन, जिनपूजन और स्वाध्याय आदि धार्मिक क्रियानों गये । सभी लेख अच्छे और जनसाधारण के लिए उपयोगी
मे तन्मय रहते थे। आपका पत्नी पार्वतीदेवी भी गृहस्थोहोते थे। उनका सबसे बडा कार्य अग्रेजी पढ़-लिखे चित धार्मिक क्रियानो का पालन तत्परता से करती थी, विद्वानों मे जैनधर्म का प्रचार था। बहुत से अग्रेजी भाषा और प्रतिज्ञा पालन में मदढ थी। चम्पतराय का बडे लाडके विद्वान जैनधर्म के श्रद्धालु, जैन ग्रन्थो के स्वाध्यायी एव प्यार से पालन हुआ। यह बाल्यकाल से ही तीक्ष्ण बुद्धि जिनदर्शन करने वाले व्यक्तियो से मालूम हुआ कि वे उक्त थे. पढने-लिखने मे चतुर थे। कौन जानता था कि यह ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी के उपदेश से ही जैनधर्म के बालक भविष्य मे अच्छा विद्वान और जैन सस्कृति की श्रद्धालु बने है । और आज वे जैनधर्म के अच्छे ज्ञाता है। सेवा करेगा। छह वर्ष की अवस्था मे माता का वियोग हो उनकी सन्तान भी जैनधर्म का पालन करती है। ऐसा गया। अतएव वे जननी के वियोग से वचित हो गये। महत्वपूर्ण कार्य अन्य किसी ने नहीं किया। वे जैनधर्म का लाला चन्द्रामल के वशज सोहनलाल और बाकेलाल भी प्रचार करने के लिए भारत मे यत्र-तत्र घूमा करते थे और थे। ये दोनो सहोदर भाई दिल्ली के प्रसिद्ध धनिको मे सभामो, उत्सवी आदि में पहुंच कर अपने उपदेशो द्वारा थे किन्तु कोई सन्तान न होने से चिन्तित रहते थे। बालक उन्हे जैनधर्म का प्रेमी बनाने का यत्न करते थे। फिर भी चम्पतराय पर उनका स्नेह जन्म से था। लाला चन्द्रामल वे अपनी चर्या में सावधान रहते थे। वे लका भी गए ने उन्हे पुत्र की चाह में दुखी देखकर कहा भाई जैसा
और वहाँ बौद्ध ग्रन्थो का अध्ययन कर जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान चम्पत मेरा वैसा ही तुम्हारा है तुम्ही इसे अपने पास नाम की पुस्तके भी लिखी थी।
रखो, मै तुम्हारे मुख में सुखी रहूँगा । इनके पिता के भाई जैन पुरातत्त्व के सम्बन्ध मे भी उन्होने अग्रेजी रिपोर्टो मिट्ठनलाल और गुलाबसिंह के भी कोई पुत्र न था। अतः एपीग्राफिया इण्डिका, एव कर्नाटिका, इण्डियन एण्टीक्वरी चम्पतराय ७ वर्ष की अवस्था मे उनकी गोद चले गये।
दि ग्रन्थो मे जैन पुरातत्त्व विषयक सामग्री का आकलन इसके बाद उनके रहन-सहन और बेष-भूषा में भी प्राचीन जैन स्मारकों द्वारा किया। यह कार्य भी कम परिवर्तन हो गया। और १३ वर्ष की अवस्था में इनका महत्व का नही है। अापने जैन साहित्य की महान् सेवा विवाह दिल्ली के रईस स्व. लाला प्यारेलाल जी (M. की है । मापके लिखे हुए २६ ग्रन्थ तो मौलिक है, २४-२५ L.A. Central) की पुत्री के साथ हो गया। मेट्रीक्यूट्रैक्ट है । और २१ टीका ग्रन्थ है । मास्टर बिहारील ल लेशन की परीक्षा चम्पतराय ने फर्स्ट डिवीजन मे पास जी चतन्य के वृहत् जैन शब्दार्णव नामक कोष का सम्पादन की। बाद को देहली के प्रसिद्ध सेट स्टीफिन कालेज मे किया है। वे प्रत्येक चतुर्मास मे एक पुस्तक तय्यार कर एफ. ए. तक अध्ययन किया। वे कुशाग्र बुद्धि तो थे ही। देते थे। और बहुत जल्दी लिखते थे। उनका भाषण प्रतः सन् १८९२ में अध्ययन के लिए इगलेण्ड चले गये ।