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अनेकान्त
भी स्वीकार न कर विवक्षित सन्तान व इतर सन्तान गत (पृथक्त्व-अपृथक्त्व) के मानने में विरोध और अवाच्य भिन्न भिन्न क्षणक्षयी विशेषों को ही माना गया है। इसे बतलाने में उसकी भी अशक्यता को पूर्व के समान (१३) • लक्ष्य में रखकर यहां कहा गया है कि एकत्व के अपलाप प्रगट करके यह सिद्ध किया गया है कि जिस प्रकार ऐक्य
मे सन्तान, समुदाय, साधर्म और परलोक गमन-जो से निरपेक्ष होने के कारण पृथक्त्व अवस्तु है उस तथा निर्बाध सिद्ध है-नही बनता । यथा-सन्तान की व्यवस्था पृथक्त्व से निरपेक्ष होने के कारण ऐक्य भी अवस्तु है उस तब तक नहीं बन सकती जब तक विविध सन्तामों में- प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार एक दूसरे की अपेक्षा देवदत्त चित्तक्षणों और जिन दत्त चित्तक्षणों मे-अन्वय- रखने से वे दोनो अवस्तुभूत नहीं है, किन्तु वस्तुभूत व रूप से रहने वाली पृथक् पृथक् एक प्रात्मा को स्वीकार अविरुद्ध हो है। जैसे साधन-विपक्षाद् व्यावृत्ति से किया जाय । इन सन्तान क्षणो मे परस्पर और इतर निरपेक्ष सपक्षसत्व और सपक्ष सत्व से निरपेक्ष विपक्षाद् मन्तान क्षणो से सर्वथा पार्थक्य के होने पर यह अमुक व्यावृत्ति मै साधन असाधन होता है, पर विपक्षाद् व्यासन्तान है, यह व्यवस्था बन ही नही सकती है। इसी प्रकार वृत्ति से सापेक्ष सपक्ष सत्व और सपक्ष सत्व सापेक्ष विपक्षाद् एक स्कन्ध के अवयवो मे रहने वाला समुदाय भी तभी व्यावृत्ति के मानने पर वह साधन साधन ही होता है, बन सकता है जब उनमे देश की समनन्तरतारूप एकता असाधन नही । इसी को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया को स्वीकार कर लिया जाय । अन्यथा, अन्य स्कन्ध के है कि सत्मामान्य की अपेक्षा सभी जीवादि पदार्थो मे अवयवों के समान विवक्षित स्कन्ध के अवयवो मे भी एकता (अभेद) और है क्योकि द्रव्यभी सत् है, गुण भी सत् सर्वथा भेद के रहने पर विवक्षित समुदाय की भी व्यवस्था है, इस प्रकार निधि एकत्व की प्रतीति उन सब मे देखी कसे बन सकती है ? इसी प्रकार सदृशता रूप एकता के जाती है। साथ ही यह द्रव्य है, गुण नही है, यह गुण बिना साधर्म और एक अन्वित प्रात्मा के बिना परलोक है, द्रव्य नहीं है। इस प्रकार चुकि पृथवात्व की प्रतीति भी की भी व्यवस्था असम्भव होगी दूसरे, ज्ञान को यदि सत्- उनमे अस्वलित देखी जाती है, अतएव वे पृथक पृथक भी स्वरूप से भी ज्ञेय से पृथक माना जाता है तो ऐसी हैं । इस प्रकार भेद और प्रभेद की विवक्षा में उन दोनो अवस्था में ज्ञान असत् ही ठहरता है। और जब ज्ञान ही के एकत्र रहने में कोई विरोध नही है। जैसे असाधारण असत् हो गया तब उसके बिना ज्ञेय की सत्ता सतरा हेतु-पक्षधर्मत्व, सपक्षमत्व और विपक्षाद् व्यावृत्ति आदि समाप्त हो जाती है। इस प्रकार से इस मान्यता में बाह्य भेद की विवक्षा मे उसमे पृथक्ता है---केवलान्वयी व और अभ्यन्तर दोनो ही तत्त्वो कालोप हो जाता है (२६- केवल व्यतिरेकी आदि का भेद है । साथ ही हेतुत्व ३०) ।
सामान्य प्राविनाभावित्व की अपेक्षा उसमे एकता भी है। इसके अतिरिक्त बौद्धमतानुसार सकेत की शक्यता न
अनन्त धर्म विशेष पदार्थ मे अभीष्ट धर्म के अभिलाषियो
अनन्त धर्म विशप पर होने से शब्दो द्वारा विशेषो का कथन नही होता-वे
द्वारा जो विशेषण की विवक्षा और अविवक्षा की जाती अवाच्य है । शब्दो का अभिधेय सामान्य है । परन्तु उन्ही है सा सत् विशषण-उक्त एकत्व आा
है सो सत् विशेषण- उक्त एकत्व प्रादि-की ही की को मान्यता के अनुसार सामान्य अवस्तुभूत है, अतः
जाती है, न कि असत् की । इस प्रकार प्रमाण सिद्ध होने उसका वस्तुतः प्रभाव ही समझना चाहिये । इस प्रकार
से वे भेद और अभेद परमार्थ सत ही है काल्पनिक नहीं शब्दों का अभिधेय जब प्रवस्तु है-वस्तुभूत नही है
है । गौणता और प्रमुखता की अपेक्षा उन दोनो के एक तव वैसी अवस्था मे सकेतग्रहण और शब्दों के उच्चारण पदार्थ मे युगपत् रहने में कुछ भी विरोध नहीं है। से क्या लाभ है-वह निरर्थक ही सिद्ध होता है । इस (३२-३६) प्रकार से उनकी उक्त मान्यता के अनुसार समस्त वचन इसी क्रम से आगे नित्यत्व-अनित्यत्व (३७-०), , असत्य ठहरते है (३१)।
कार्य-कारण आदि की भिन्नता व अभिन्नता (६१-७२) आगे जाकर परस्पर को अपेक्षा से राहत उन दोनों अपेक्षा-अनपेक्षा (७३-७५), हेतु सिद्ध-पहेतु (मागम)