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दिगम्बर परम्परा में प्राचार्य सिद्धसेन
सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादीरूपी हाथियो के ने अपने विशेषावश्यक भाष्य मे उसकी कठोर पालोचना झुण्ड के लिए सिह के समान है तथा नय जिसके केसर की, वैसे ही सन्मतिसूत्र को प्रागमप्रमाण के रूपमे मान्य (गर्दन पर के वाल) हैं और विकल्प पैने नाखून है। करके भी वीरसेन स्वामी ने उसमे प्रतिपादित अभेदवाद
__ सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र मे प्रधान रूप में यद्यपि अने- को मान्य नही किया और मीठे शब्दों में उसकी चर्चा कान्त की चर्चा है, तथापि प्रथम काण्डमे अनेकान्तवाद की करके उसे अमान्य कर दिया। देन नय और सप्तभगी की मुख्य चर्चा है। तथा दूसरे यह एक उल्लेखनीय वैशिष्ट्य है कि एक ग्रन्थ को काण्ड में दर्शन और ज्ञान की चर्चा है, जो अनेकान्त की प्रमाणकोटि मे रखकर भी उसके अमुक मतको अमान्य ही अगभूत है। इस चर्चा में आगम का अवलम्बन होते कर दिया जाता है अथवा अमुक मत के अमान्य होने पर हए भी तर्क की प्रधानता है। और तर्कवाद में विकल्प- भी उस मत के प्रतिपादक ग्रन्थ को सर्वथा अमान्य नहीं जाल की मुख्यता होती है जिसमें फंसाकर प्रतिवादी को किया जाता और उसके रचयिता का सादर सस्मरण परास्त किया जाता है। अतः जहाँ सन्मतिसूत्रके प्रथम किया जाता है। काण्ड सिद्धसेनरूपी सिंह के नयकसरत्व का परिचायक है, अकलंकदेव पर प्रभाव : वहाँ दूसरा काण्ड उनके विकल्परूपी पैने नखों का अनुभव आचार्य अकलकदेव प्राचार्य समन्तभद्र की वाणीरूपी कराता है। दर्शन और ज्ञान का केवली मे अभेद सिद्ध गगा और सिद्धसेन की वाणीरूपी यमुना के मगमस्थल है। करने के लिए जो तर्क उपस्थित किये गये है, प्रतिपक्षी दोनों महान् प्राचार्यो की वाग्धाराए उनमें सम्मिलित भी उनका लोहा माने बिना नही रह सकते । अत: जिन- होकर एकाकार हो गई है । समन्तभद्र के 'प्राप्तमीमासा' सेनाचार्य ने अवश्य ही सन्मतिमूत्र का अध्ययन करके पर तो अकलकदेव ने अष्टगती नामक भाष्य रचा है, सिद्धसेनरूपी सिहके उस रूपका साक्षात्परिचय प्राप्त किया किन्त सिद्धसन के द्वारा ताकिक पद्धति से स्थापित तथ्यों था, जिसका चित्रण उन्होंने अपने महापुगणके सम्मग्ण मे को भी अपनी अन्य रचनाओ में स्वीकार किया है । उसका किया है।
स्पष्टीकरण इस प्रकार हैसन्मतिसूत्र की प्रागमप्रमाणरूप में मान्यता :
नयो की पुरानी परम्परा सप्तनयवाद की है। दिगम्बर यह जिनसेन वीरसेन स्वामीक शिष्य थे और वीरसेन- तथा श्वेताम्बर परम्पराए इस विषय मे एकमत है । किन्तु स्वामी ने अपनी धवला और जयधवला टीका मे नयो का सिद्धसेन दिवाकर नैगम को पृथक् नय नहीं मानते। निरूपण करते हए सिद्धसेन के सन्मतिमूत्र की गाथाओ को शायद इसी से वह पड्नयवादी कहे जाते है। अकलकदेव सादर प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। दोनों टीकामो मे ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक' में चतुर्थ अध्याय के अन्तिम सत्र निक्षेपो मे नयो की योजना करते हा वीरसेन स्वामी ने के व्याख्थान के अन्तर्गत नयसातभगी का विवेचन करते हए अपने कथन का सन्मतिसूत्र के साथ अक्रोिध बतलाते हुए द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयो को सग्रहाद्यात्मक बतलाया है सन्मतिसूत्र को प्रागमप्रमाण के रूप में मान्य किया है। तथा छ ही नयो का पाश्रय लेकर मप्तभगी का विवेचन किन्तु सन्मतिसूत्र के दूसरे काण्ड मे केवजान और केवल किया है । तथा लघीयस्त्रय में यद्यपि नंगमनय को लिया दर्शन का अभेद स्थापित किया गया है और यह अभेदवाद है तथापि कारिका ६७ की स्वोपज्ञ वृत्ति मे सन्मति की जहा क्रमवादी श्वेताम्बर परम्परा के विरुद्ध पहना है वहाँ गाथा १-३ की शब्दशः सस्कृत छाया को अपनाया है। युगपद्वादी दिगम्बर परम्परा के भी विरुद्ध पडता है। यथाअत: सिद्धसेन के इस अभेदवादी मत को जैसे श्वेताम्बर तत्थयर वयण संगहविसेसपत्थारमलवागरणी। परम्परा ने मान्य नही किया और जिनभदगणि क्षमाश्रमण दवठियो य पज्जवणयो य सेसा वियप्पासि ।। सन्मति । १. कसायपाहुड, भा० १, पृ० २६१ । खटखण्डागम पु० २. कसायपाहुड, भा० १ पृ. ३५७ ।
१, पृ० १५ । पु०६ पृ. २४४ । पु०१३, पृ. ३५४। ३. पृ०२६१ ।