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अनेकान्त
सदोषता के कारण उस प्राप्तता का निषेध व्यक्त किया यदि सर्वथा प्रवक्तव्य-नहीं कहा जा सकने योग्यहै (६-७)।
माना जाय तो वैसी स्थिति में 'तत्त्व प्रवक्तव्य है' इस भाव-प्रभाव, एक-अनेक, भेद-प्रभेद और नित्यत्व- प्रकार कहना भी प्रयुक्त होगा (१३)। अनित्यत्वादि परस्पर विरोधी दिखनेवाले तत्त्वों में से इस प्रकार भाव और प्रभाव के दुराग्रह को दूर करते किसी एक ही तत्त्व को अथवा परस्पर निरपेक्ष दोनो को
का हुए पूर्व मे (६) अविरुद्ध वक्तृत्व की सिद्धि में जो यह भी मानने वाले उन एकान्तवादियो के यहाँ चूकि पुण्य
कहा गया था कि 'पापका अभीष्ट तत्त्व किसी प्रमाण के पाप और इहलोक-परलोक आदि की व्यवस्था सम्भव नहीं टारा खपिरत नही होता' ही माता के स्पीकरण है, अतएव वे न केवल परवचक है, अपि तु प्रात्मवचक
स्वरूप स्याद्वाद का प्राश्रय लेकर कचित् भावाभावादि भी है-स्वय अपना भी अहित करने वाले है। इसीलिए रूप-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति इत्यादि-सात भगो की ऐसे दुराग्रहियों को नो स्व-परशत्रु हो समझना चाहिए योजना नयविधि के अनुसार की गई है और वहाँ (२०) (८) । इस प्रकार प्रारम्भ मे स्थिर भूमिका को वाधकर कहा गया है कि हे भगवन् इस प्रकार स्याद्वाद की भित्ति आगे के ग्रन्थ में ऐसे ही कुछ एकान्तवादों का विवेचन पर खड़ा होने से अापके शासन मे-अभीष्ट तत्त्व मेंकिया गया है
किसी प्रकार का विरोध सम्भव नही है। वस्तु की अर्थभाव-प्रभाव एकान्त
क्रिया-प्रवृत्ति-निवृत्ति की साधनता-भी तभी बन इनमें प्रथमतः भावैकान्त का विवेचन करत हुए कहा सकती है जब कि उसे भाव ( विधि ) अथवा प्रभाव गया है कि वस्तु को यदि सर्वथा सद्भावरूप ही स्वीकार (निषेध) स्वरूप से निर्धारित न किया जाय । यह कर प्रभाव का-अन्योन्याभाव, प्रागभाव, प्रध्वसाभाव अवश्य है कि अनन्तधर्मात्मक वस्तु के उन धर्मों में प्रत्येक और अत्यन्तताभाव इन प्रभावो का-सर्वथा प्रतिषेध
प्रतिषध अपने पृथक-पृथक प्रयोजन को लिए हए है । अतः प्रयोजन किया जाता है तो इन प्रभावो के अभाव में क्रम से सबके के अनसार उन विविध धर्मों में जब किसी एक धर्म की सर्वरूपता, अनादिता, अनन्तता पौर निःस्वरूपता का-जीव
विवक्षा की जाती है तब वह मुख्य व इतर मब गौण हो की चेतनता और अजीव की जड़ता जैसे नियत वस्तु स्व.
जाते है, पर उनका कुछ लोप नहीं हो जाता-पावश्यरूप के अभाव का-प्रसग अनिवार्य प्राप्त होगा (६-११)।
कतानुसार उनमे से प्रत्येक को प्रमुखता प्राप्त हुमा करती इसके विपरीत भाव को न मानकर केवल प्रभाव को
है। प्रकरण के अन्त में यह भी निर्देश कर दिया है कि -सकल शून्यता को ही माना जाता है तो सद्भाव स्वरूप
इसी प्रकार से इस सप्तभंगी की योजना एक-अनेक व वस्तुमात्र के अभाव मे बोध-विवक्षित अभीप्ट तत्त्व की
नित्य-अनित्य आदि इतर परस्पर विरोधी दिखाने वाले सिद्धि और अनिष्ट वस्तुस्वरूप को दूषित करने रूप ज्ञान
धर्मों के विषय मे भी करना चाहिए (१४-२३) । (स्वार्थानुमान)-और वाक्य-अन्य को समझा सकने योग्य वचन (परार्थानुमान)-का भी विलोप अवश्यभावी
प्रत-वैत एकान्त है । तब वैसी दशा में वस्तुस्वरूप को स्वय कैसे समझा जा
इस प्रकरण में प्रथमतः अद्वैत एकान्त पर विचार करते सकता है तथा अन्य को समझाया भी कैसे जा सकता है
हुए कहा गया है कि यदि सर्वथा अद्वैत-एकमात्र परब्रह्म वंसी दशा मे (ज्ञान और शब्द के अभाव में) स्वय को
विज्ञान, शब्द अथवा चित्ररूपता प्रादि-को मानकर इतर अभीष्ट उस प्रभावकान्त को भी सिद्ध नहीं किया जा
सभी पदार्थों का प्रतिषेध किया जाता है तो वैसी अवस्था सकता है (१२)।
में कर्ता आदि कारको और अवस्थिति व गमनादि क्रियाओं परस्पर निरपेक्ष-स्यावाद सरणि के बिना-भाव में जो प्रत्यक्षतः भेद देखा जा रहा है वह विरोध को व प्रभाव दोनों के मानने मे विरोध का प्रसग दुनिवार प्राप्त होगा। इस पर कहा जाता है कि वह कारकभेद होगा। इसके अतिरिक्त तत्त्व को भाव व अभावरूप से और क्रियाभेद तो एक मे भी सम्भव है, वह भला विरोध