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. स्यावाद का विचार
हेतुवाव में नय व हेतु का स्वरूप वह तत्त्वज्ञान स्याद्वादनय से किसी प्रकार सस्कृत है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए आगे कहा गया है कि हे
पूर्व में प्रमाणभूत तत्त्वज्ञान को स्याद्वाद और नय भगवन् । पापको तथा अन्य केवलियो-को वाक्यों में
से सस्कृन बतलाया जा चुका है। उनमे स्याद्वाद से जहाँ मत्-असन् और नित्य-अनित्य प्रादि रूप सर्वथा एकान्त के
परमागम अभिप्रेत है वहाँ नय से हेतुवाद अभिप्रेत इसीविरोधी ऐसे अनेकान्त को प्रकाशित करने वाला तथा
लिये प्रसगानुसार यहा हेतु का निरूपण करते हुए कहा गम्य-ध्वनित होने वाले प्रतिपक्षभूत-प्रर्थ के प्रति विशेषण गया है कि साध्य का-साध्य के आधारभूत धर्मी का कप 'स्यात्' शब्द ( निपात ) ( विधि-निमत्रण प्रादि का ( जैसे अग्नि के अनुमान मे पर्वत )-सधर्मा-समान द्योतक-जैसा कि जैनेन्द्र व्या० २।३ । १५२ मे निर्दिष्ट
धर्म वाले दृष्टान्न धर्मी ( उक्त अनुमान मे जैसे महानस ) है-'अम् धातु के विर्षािलग के रूपभूत 'स्यात्' क्रियापद
के ही माथ-न कि विपक्ष के साथ ( विपक्ष के साथ तो नही ) प्रभीष्ट है । कारण यह कि उसके बिना सम्बद्ध
उमका वधर्म्य है )-साधर्म्य ( समानता ) होने से जो अर्थ का बोध सम्भव नही है । अभिप्राय यह है कि सम्बद्ध
विरोध से रहित-अन्यथानुपपत्तिक स्वरूप होने से प्रसिद्ध अर्थ को व्यक्त करने के लिये, स्यात् जीवः, स्यात् घट.'
-विरुद्धादि हेतु दोपो से रहित-स्याद्वाद के द्वारा प्रविभक्त जैसे 'स्यात्' शब्द से युक्त वाक्यो का उपयोग करना
अनेकान्तात्मक अर्थ के विशेप को-नित्यत्व आदि को चाहिए । यहाँ प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक
-प्रगट करता है उसे नय-नय के साथ हेतु भी कहा होकर गम्य मान अजीव और अघट रूप अर्थ का सूचक
जाता है। अभिप्राय यह है कि जो स्याद्वाद से प्ररूपित भी है । इस विशेषता को प्रगट करने के कारण उसे गम्य
अनेकान्तात्मक अर्थ के विविध प्रगो का प्रतिपादक है उस अर्थ के प्रति विशेषण कहा गया है। (१०३)
और अनुमान के विषयभूत साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति
रूप होने से जो साधक होता है उसे हेतु कहते है । 'नीयने प्रागे इस 'स्यात' शब्द के पर्यायस्वरूप 'कथचित्' ।
अनेन इति नय' इस निरुक्ति के अनुसार जो गम्य अर्थ को शब्द के निर्देश पूर्वक स्याद्वाद के स्वरूप को प्रगट करते।
सिद्ध करता है उसे नय हेतु कहा जाता है। ( १०६ ) हुए कहा गया है कि सर्वथा एकान्त को-नित्यत्व या अनित्यत्व प्रादि किसी एक ही धर्म की मान्यता रूप दुराग्रह स्याद्वाद और केवलज्ञान का जो विषय नही है वह को छोडकर जो कि-वृत्त-चिद्विधि-'किम्' शब्द से उत्पन्न अवस्तु है, यह कह पाये है । तव फिर वस्तु क्या है, इसका चिद्विधि-अर्थात् कथचित् आदि रूप विधान है-अपेक्षा स्पप्टीकरण करते हुए यह बतलाया है कि द्रव्य और पर्याय बाद है, इसका नाम स्यावाद है । वह स्यावाद सात भगो को विषय करने वाले नय और उसकी शाख-प्रशाखाभूत पौर अनेक भेद-प्रभेदरूप द्रव्यार्मिक व पर्यायार्थिक नयो की उपनयो के जो तीनो कालो सम्बन्धी एकान्त हैं-विपक्ष अपेक्षा रखता हुमा हेय और उपादेय की विशेषता को का निराकरण न करके उसकी उपेक्षा रूप विषय ( पर्याय प्रगट करने वाला है। उसके बिना हेय-उपादेय की व्यवस्था विशेष) है उनके कथचि तादात्म्य रूप समुदायक को बन नही सकती। वह स्याद्वाद रूप श्रुत वस्तुतः केवल- बस्तु या द्रव्य कहते है, जो एक अनेकादि स्वरूप से अनेक ज्ञान के ही समान द्रव्य पर्याय स्वरूप समस्त तत्त्वो का प्रकार है। इस पर यदि यह कहा जाय कि एकान्तों को प्रकाशक है । भेद यदि उन दोनो मे है तो केवल यही है जब मिथ्या कहा जाता है तब उनका समुदाय भी मिथ्या कि केवलज्ञान जहाँ उन सब तत्त्वो को प्रत्यक्ष रूप से क्यो न होगा; इस आशका का परिहार करते हुए यह भी ग्रहण करता है वहाँ यह स्यावाद परमागम उन्हे परोक्ष कहा गया है कि यदि वे नय निरपेक्ष है-विरुद्ध धर्म का रूप से ग्रहण करता है-अन्य भेद उनमे कुछ भी नही निराकरण करने वाले है-तो उनका समुदाय भी मिथ्या ग्रहण किया जाता उसे अन्यतम-तृतीय पक्ष के रूप मे होगा ही। परन्तु यदि वे सापेक्ष है-विरुद्ध धर्मकर निरा-प्रवस्तु ही समझना चाहिये। (१०४-५)
करण न करके प्रयोजन के प्रभाव में केवल उनकी अपेक्षा