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अनेकान्त
के प्रति मोह से जन्मी है । और सस्कृति के प्रति अरुचि कुप्रभावित होकर सम्कृत के प्रति गलत धारणा बना को जन्म दे रही है।
लगा। अध्यापन शैली के दोष :
संस्कृत के विद्वानों और विद्यालयों को शोचनीय स्थिति : विश्वविद्यालयो, कालिजो और कुछ स्कूलो मे सस्कृत प्राज सस्कृत के विद्वान और विद्यालय, दानों की की शिक्षा मनोवैज्ञानिक तथा परिष्कृत शैली में दी जाने आर्थिक स्थिति अत्यन्त शीचनीय है । अधिकाश विद्यालयो लगी है। परन्तु प्राचीन पद्धति की पाठशालाप्रो और चट- का सचालन विभिन्न समाजो और व्यक्तियों द्वारा किया गालो मे जो अध्यापन शैली प्रचलित है वह अत्यन्त दोप- जाता है। उनकी प्राय के स्रोत भी उनके सचालको तक पूर्ण हो गई है। इनके अध्यापक मनोविज्ञान से प्राय: ।
ही मीमित रहते है । शासकीय अनुदान उन्हे प्राय नही अपरिचित होते है। इनमे और बहुत-सी कमिया हुअा। मिलता । ये विद्यालय संस्कृत विद्या के प्रचार के लोभ मे करती है। कालिदास और भवभूति के नाटको का दमो चनाये तो जाते है पर धनाभाव के कारण उनमे न तो बार अध्यापन कर चुकने वाले भी अध्यापक कदाचिन् शिक्षा के पर्याप्त और उपर्ययत साधन होते है और न वहा उन नाटको का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने में हिच- के अध्यापकों को पर्याप्त वेतन ही दिया जाता है। बहुत केगे। इन पाठशालागो और चटशालो में ऐसे भी कोई सो विद्यालय ममाज गे चन्दा उगाहने के लिए प्रचारक रखें अध्यापक मिलेगे जिन्होने दसो बार मेघदूत का अध्यापन रहते है। ये प्रचारक प्राय अल्पशिक्षित और अप्रामाणिक किया होगा, पर वे उसमे उल्लिखित स्थानों पर भौगोलिक
होते है - इनवे माध्यम से भी जनमाधारण की श्रद्धा और टिप्पणिया न लिख सकेंगे। वे अध्यापक भी मिल सकते है
मचि मस्कृत मे हट जाती है। उबर वेतन अपर्याप्त मिलने जिनकी जिह्वा पर नाचती होगी वेद-चतुष्टय की ऋचाये
से अध्यापक उदास रहते है और उमी उदामी में वे छात्रा लेकिन उनमें से अधिकांश ने इस युग के प्रथम वेद सस्का
को शिक्षा देते है उिमगे छात्र परिपक्व नही होने पाने । रक मेक्समूलर और बेवर के नाम भी न सुने होगे। मै
बारह वर्ष तक तन, मन अोर वन में जुट कर अवार्य बने, एक ऐसे अध्यापक को जानता हूं जिन्हे कई सस्कृत ग्रंथ
अन्त में उगे हम ग्राममान छने वाली महगाई के युग में अक्षरश: मुखाग्र है, पर वे यह नहीं बता सकते कि उन
भी सौ या उसगे भी कम रुपये मिले, इमगे बढकर सस्कृत ग्रन्थो मे आये हुये उद्धरण किन ग्रथों से लिये गये है।
की अप्रतिष्ठा और क्या हो सकती है ? पाश्चर्य नही जो इन पाठशालाओ और चटशालो में ऐसे अध्यापक भी मिल जाय जिन्हे अपने वर्षों से मुखाग्र किये संस्कृत व्याकरण के आधुनिक संस्करण का प्रभाव ग्रन्थो के ग्रन्थकारो का भी नाम ज्ञात न हो, उनके व्यक्ति
सम्बन का व्याकरण अपनी सुव्यवस्था और वैज्ञागत और साहित्यिक परिचय की तो बात ही क्या !
निकता के लिये जगप्रसिद्ध है । पाणिनि और पनजलि अध्यापन करते समय ये अध्यापक वर्षों के रटे-रटाये ग्रादि के व्याकरणो के सस्करण भी प्रामाणिक रूप में विषय को ही टेप- रिकार्डर की भाति छात्रो के सामने रख प्रकाशित हये है। पर बात कछ और है । युग की माग देते है, पार्कषण और मनोविज्ञान के तत्त्व तो उस विषय उस व्याकरण की तो है लेकिन उसके वर्तमान सस्करण मे पहले से ही नही रहते । छात्रों के अहोभाग्य जो वे के रूप मै नही । आवश्यकता ऐमो सस्करण की है जिसमें उसमें से कुछ सीख निकलते है।
सम्पूर्ण व्याकरण को उसका एक भी शब्द परिवर्तित किये ___इन अध्यापको और पंडितो द्वारा प्रत्यक्ष मे भले ही बिना ही एक नये सिरे से, नयी शैली में लिखा गया हो । संस्कृत के प्रति अरुचि उत्पन्न न की जाती हो, परन्तु इस प्रकार का सराहनीय प्रयत्न हुअा है कोप ग्रन्थो के परोक्ष मे तो ये उसके मूल कारण ही है। इनमें अध्ययन विषय मे । सस्कृत के प्राचीन कोप ग्रन्थो से शब्दावली करने वाला प्राज का विज्ञान प्रेमी छात्र निश्चय ही इनसे लेकर उसे आज की 'डिक्शनरियो' मे संजोया गया है जो