Book Title: Anekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 63
________________ अनेकान्त है, इसलिए बार-बार उठना-बैठना मेरे लिए सभव नहीं हुअा कहना है कि- उस संघ में थोडो बहुत माहार-सामग्री होता, न उठने से उस सघ की समाचारी का भग होता है, मिलने पर सब सदस्य कुने आदि प्राणियो की तरह एक उसका भग होने से मुझे कडा दण्ड मिलता है । अत मै दूसरे पर टूट पडने है, अन्तर इतना ही है कि इस प्रकार आपकी शरण में आया हूँ। का आचरण करके फिर मिच्छामि दुक्कड कर लेते है। उन लुब्धमनि' अपनी समस्या इस प्रकार रखता कि भिक्षा भिक्षयो के साथ मेरा मन नही लगता, इसलिए मैं आपकी मे तो कुछ भक्षणीय या अभिलाषणीय पदार्थ लड्डू-जलेवी अनुशासन में पाना चाहता है। आदि मिलते हैं, उन्हे या तो प्राचार्य स्वय खा लेते है या जो मुनि' प्राचार्य के अनुशासन को बन्धन मानकर बाल, वृद्ध, रुग्ण और अतिथि मुनियो को देते है। उस पाता है, वह अपनी दुविधा प्रस्तुत करता हुमा कहता है विषम स्थिति में रहना मेरे लिए सभव नही है, इसलिए कि उस सघ मे वैयक्तिक स्वतत्रता विलकुल नहीं है। मै आपके पास पाया हूँ। सघीय मर्यादा के अनुसार सघाटक के बिना कही भी नहीं णिद्धम (उप्र) मुनि कहता है कि समय पर जा पाना और तो क्या मशाभूमि ( देह चिन्ता से निवृत अावश्यकी नैषिधिकी करने में कभी भूल हो जाती है होने के लिए ) भी अकेला नहीं जा सकता । इतनी अथवा प्रमार्जन ठीक नही होता है तो प्राचार्य अत्यन्त पराधीनता मुझस सही नहीं गई, इसलिए मै यहा पाया उग्र दण्ड देते है । मेरा दिल कोमल है, मैं उग्र प्रायश्चित है। इन सब कारणो से जो सुनि उपसपदा के लिए पाता, वहन करने में असमर्थ हैं, इसलिये मै उस मघ को छोड़कर उसे आचार्य अपने संघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति अापकी नित्रा में पाया है। नहीं देत थे। पालसो' मुनि अपने प्राने का उद्देश्य स्पष्ट करता अगर कोई मुनि इन कारणों में अतिरिक्त कारणहुपा कहता है कि उम सघ की भिक्षाचरी बहुत कठिन है। जान, दर्शन और चारित्र की विशेष उपलब्धि के लिए रम सघ के प्राचार्य अपने लिए आहार पर्याप्त होने पर प्राता और अपनी स्थिति इस प्रकार प्रकट करता कि मेरे बाल वृद्ध और रुग्ण मुनियों के लिए बहुत लम्बी गोचरी प्राचार्य के पास जो मूत्रार्थ था उसे तो मैने ग्रहण कर करवाते है । क्षेत्र छोटा होता है तो रोजाना दुसरे ग्रामा लिया है । मै मेरे प्राचार्य की अनुज्ञा से विधिपूर्वक यहा में जाना पड़ता है, फिर भी आहार पर्याप्त नही होता आया है। आप अनुग्रह कर मुझे सूत्रार्थ की विशेष वाचना तो प्राचार्य कहते है-क्या तुम्हारे लिए यहा रसोई दे। ऐसे पवित्र उद्देश्य को लेकर आने वाले मुनि को बनी हुई है, जो इतना सा आहार लेकर पा गए ? वापिस उपसपदा की आज्ञा न दे तो प्राचार्य प्रायश्चित के भागी जामो, घूमो पूरा समय और पूरा श्रम लगाकर पर्याप्त होते है, क्योंकि ऐसे पवित्र उद्देश्य को लेकर आने वाले आहार लेकर पायो इस प्रकार दीर्घ भिक्षाचर्या से ऊबकर मनि की अवहेलना ज्ञान की अवहेलना है। अत प्राचार्य मैं आपके पास आया हूँ। अपने संघ के सदस्यो से परामर्श लेकर उम मुनि को सघ अनुबद्ध' वैर मुनि अपनी स्थिति का चित्रण करता में प्रवेश कराने की अनुना दे देते थे। करने १. निशीथभाष्य, ६३३१ . उक्कोसमय भुजति देतऽण्णोसि परामर्श लेने की विधि बहुत मनोवैज्ञानिक है, क्योकि तु लुद्धेवे। मघ के सदस्यों को बिना पूछे प्राचार्य केवल अपनी ही २. वही, ६३३२ : पावसिय पज्जयणा प्रकरण अतिउग्ग इच्छा से नए सदस्य को सघ मे स्वीकार कर लेते है । तो दण्ड णिद्धम्मे । पाने वाले नए व्यक्ति के प्रति संघ के सदस्यों की सहानु३. वही, ६३३२ : बाला, दट्ठा, दीहा भिक्खालमियो य भूति और सहयोग नहीं रहता। बिना सहानुभूति और उन्भास। सहयोग के कोई समाचारी को स्वीकार करने वाले व्यक्ति ४. वही, ६३३३ : पाण सुणगाहि य भुजति एक्कउ असखडेव मणुवडो। ५. वही, ६३३३ : एकलस्स न लब्भा चलितु पेवतु पाणसुणगाव भुजंति एगत्तो भडि पि प्रणवदो॥ सच्छंदो ॥

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